संविधान के आधारभूत ढांचे का सिद्धांत और संविधान संशोधन

संविधान के मूल ढांचे की धारणा का आशय यह है कि संविधान की कुछ व्यवस्थाएं अन्य व्यवस्थाओं की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है, वे संविधान के मूल ढाँचे के समान है और समस्त संवैधानिक व्यवस्था उन पर ही आधारित है और इनमे संशोधन करने की शक्ति संसद के पास भी नहीं होती है। संविधान के आधारभूत ढांचे से संबंधित निम्नलिखित मामले हैं-

चम्पाकम दोराइजन बनाम मद्रास राज्य (1951) व सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1965) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में परिवर्तन कर सकती है। परन्तु गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) में न्यायालय ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भाग में परिवर्तन नहीं कर सकती है। तत्पश्चात् संसद ने 24वाँ, 25वाँ संशोधन अधिनियम पारित कर संविधान संशोधन को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति से बाहर कर दिया। 24वें व 25वें संशोधन अधिनियम को केशवानन्द भारती बनाम भारत संघ (1973) के मामले में चुनौती दी गई। केशवानन्द भारती के मुकदमे में न्यायालय ने आधारभूत ढाँचे का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। न्यायालय ने कहा कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, परन्तु आधारभूत ढाँचे में नहीं। न्यायालय ने आधारभूत ढाँचे को परिभाषित तो नहीं किया, परंतु आधारभूत ढाँचे के कुछ आवश्यक तत्त्व बताएँ हैं-

– संविधान की सर्वोच्चता
– गणतन्त्र व लोकतन्त्र
– संविधान का धर्मनिरपेक्ष रूप
– शक्तियों का पृथक्करण
– संविधान का संघीय स्वरूप

इन्दिरा गाँधी बनाम राजनारायण (1975) मामले में न्यायालय ने स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव, विधि का शासन, अवसर की समानता को मूलभूत ढाँचे का तत्त्व बताया।

मिनर्वा मिल्स (1980) मामले में मौलिक अधिकार और नीति-निदेशक तत्त्व में सन्तुलन को आधारभूत ढाँचे का तत्त्व माना है।

एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में प्रस्तावना के लक्ष्यों को संविधान के आधारभूत ढाँचे का तत्त्व बताया।

इस प्रकार आधारभूत ढाँचे के सिद्धान्त की शुरुआत और विस्तार से संसद की संविधान संशोधन शक्ति सीमित हुई। इससे एक ओर न्यायिक सक्रियता की शुरुआत हुई और संविधान का संरक्षण हुआ, वही दूसरी ओर संसद और न्यायपालिका के संघर्ष में वृद्धि हुई है।

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