अरस्तू के संपत्ति संबंधी विचार

अरस्तू महान् दार्शनिक प्लेटो का महान् शिष्य था। अरस्तू के संपत्ति संबंधी विचार उसके गुरु प्लेटो के संपत्ति सिद्धांत का ही विस्तारित रूप है। गुरु-शिष्य के रूप में इन दो महान् दार्शनिकों का बीस वर्ष का सम्पर्क रहा। व्यक्तिगत रूप से पारस्परिक सद्भाव होने के बावजूद भी, इन दोनों के विचारों में बहुत गहरा अन्तर था। दोनों के विचारों की विषमता आरम्भ से ही दृष्टिगोचर होने लगी थी। प्लेटो के राजनीतिक दर्शन की जितनी गम्भीर आलोचना अरस्तू के द्वारा हुई उतनी सम्भवतः उसके अन्य किसी आलोचक के द्वारा नहीं हुई। अरस्तू ने प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ के दो प्रधान तथा मूलभूत विचारों— सम्पत्ति और परिवार की आलोचना की है। वस्तुतः वह प्लेटो द्वारा ‘रिपब्लिक’ में चित्रित नूतन सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं करता।

अरस्तू के सम्पत्ति सम्बन्धी विचारों को समझने से पूर्व उसके द्वारा प्लेटो के सम्पत्ति के बारे में की गई आलोचना को समझना तर्कसंगत होगा।

अरस्तू द्वारा प्लेटो के सम्पत्ति के साम्यवाद की आलोचना – अरस्तू ने अपने सम्पत्ति सिद्धान्त का प्रारम्भ प्लेटो के सम्पत्ति सम्बन्धी साम्यवाद के सिद्धान्त के सन्दर्भ में ही किया है। वह प्लेटो के सम्पत्ति सम्बन्धी साम्यवाद का विरोध करते हुए कहता है कि सामान्य स्वामित्व विश्व को संकट में डाल देगा, आपसी झगड़े पैदा हो जायेंगे। ये झगड़े उस समय होंगे जिस समय सब मनोरंजन और मेहनत में बराबर नहीं होंगे। जो ज्यादा मेहनत करते हैं और कम प्राप्त करते हैं, निश्चित रूप से उनके विरुद्ध शिकायत करेंगे जो कम मेहनत करते हैं और अधिक उपयोग करते हैं।

अरस्तू के सम्पत्ति संबंधी विचार

अरस्तू ने पॉलिटिक्स की प्रथम पुस्तक के तीन अध्यायों में सम्पत्ति पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। अरस्तू सम्पत्ति को व्यक्ति के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक समझता है। प्लेटो अपने आदर्श राज्य में दो वर्गों—सैनिकों तथा शासकों के लिए सम्पत्ति का निषेध करता है, परन्तु अरस्तू समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति को अत्यन्त आवश्यक मानता है। अरस्तू के अनुसार वैयक्तिक सम्पत्ति मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास का साधन है, उसके आनन्द का स्रोत है और उसे अनेक उत्तम एवं नैतिक कार्य करने का अवसर प्रदान करती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता तथा योग्यताओं का विकास करने के लिए कुछ वैयक्तिक सम्पत्ति अवश्य मिलनी चाहिए, यदि उसे यह न दी जाय तो उसका विकास अवरुद्ध होगा तथा अन्तत: इससे राज्य को हानि उठानी पड़ेगी।

सम्पत्ति का अर्थ

 अरस्तू के अनुसार, “सम्पत्ति परिवार का एक अंग होती है तथा सम्पत्ति प्राप्त करने की कला गृह प्रबन्ध का एक अंग होती है।” सम्पत्ति की परिभाषा करते लिखा है, “सम्पत्ति उन वस्तुओं का संग्रह है जो राज्य या परिवार में जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक और उपयोगी होती है।” मानव जीवन को सुखी बनाने वाला महत्वपूर्ण साधन मानते हुए वह सम्पत्ति के बारे में लिखता है—“सम्पत्ति परिवार व राज्य में प्रयोग किये जाने वाले साधनों या उपकरणों का संग्रह है।” सम्पत्ति के अन्तर्गत वे सभी वस्तुएं आ जाती हैं जो परिवार के सदस्यों के दैनिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। परिवार में रहने वाले व्यक्तियों को भोजन, वस्त्र और मकान की आवश्यकता होती है, अरस्तू के अनुसार ये सभी सम्पत्ति के भी भाग हैं।

सम्पत्ति का उद्देश्य अथवा औचित्य

अरस्तू निजी सम्पत्ति की व्यवस्था का प्रबल समर्थक है। उसके अभिमत में निजी सम्पत्ति की व्यवस्था सम्पूर्ण समाज के लिए हितकर है और इसे सभी व्यक्तियों के लिए मान्यता प्रदान की जानी चाहिए। अरस्तू का विश्वास है कि “व्यक्तिगत सम्पत्ति सामूहिक सम्पत्ति से अधिक उपयोगी है बशर्ते कि उसका प्रयोग सामाजिक क्षेत्र में परम्पराओं व रीति-रिवाजों द्वारा और राजनीतिक क्षेत्र में उचित कानून द्वारा नियन्त्रित हो। निजी सम्पत्ति के औचित्य के पक्ष में अरस्तू निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करता है :

(1) यह सामाजिक अर्थव्यवस्था का एक सामान्य अंग है। उसका कथन है कि ‘जब प्रत्येक का विशेष स्वार्थ होगा तो व्यक्ति अधिक प्रगति करेंगे क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य पर पूरा ध्यान देगा।’ व्यक्ति उस समय निश्चित रूप से कठिन परिश्रम करेंगे जबकि उनका निजी स्वार्थ उसमें निहित होगा। इस प्रकार व्यक्ति के कठिन परिश्रम से सम्पूर्ण समाज को लाभ प्राप्त होगा।

(2) यह परिवार के अस्तित्व और उसके सुचारु संचालन के लिए अपरिहार्य है। सम्पत्ति के आधार पर व्यक्ति जीवन की सुरक्षा प्राप्त करता है।

(3) सम्पत्ति – मित्रता, उदारता, अतिथि सत्कार आदि के समान सदगुणों को क्रियात्मक रूप प्रदान करने के लिए आवश्यक है।

(4) सम्पत्ति से वंचित व्यक्ति उन अनेक लाभों से वंचित हो जाता है जो सम्पत्ति के होने से अनायास ही उसे प्राप्त होते हैं। यथा, सम्पत्ति होने पर व्यक्ति अनेक नैतिक अच्छाइयों, दानशीलता, उदारता, अनेक प्रकार के आत्मसन्तोष एवं प्राकृतिक आनन्द का लाभ उठा सकता है।

(5) अरस्तू मनोवैज्ञानिक आधार पर भी निजी सम्पत्ति की संस्था का समर्थन करता है। सम्पत्ति सुख का एक साधन है क्योंकि सभी या लगभग सभी व्यक्ति सम्पत्ति से प्रेम करते हैं।

(6) निजी सम्पत्ति का स्वामित्व व्यक्तियों में नागरिक उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न करता है। सम्पत्तिहीन व्यक्ति राज्य के कार्यों में कोई रुचि नहीं लेता, लेकिन जिन व्यक्तियों के पास निजी सम्पत्ति होती है, वे इसकी रक्षा के लिए राज्य की ओर देखते हैं और राज्य के कार्यों में रुचि लेते हैं।

(7) जिन व्यक्तियों के पास सम्पत्ति होती है, वे इसका प्रबन्ध करना जानते हैं और अपने इस प्रकार के अनुभव के आधार पर राज्य के प्रबन्ध में उपयोगी रूप से भाग ले सकते हैं। इसी कारण अरस्तु नागरिकता का अधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को देना चाहता है, जिनके पास निजी सम्पत्ति हो।

सम्पत्ति के प्रकार

 अरस्तू के अनुसार सम्पत्ति दो प्रकार की होती है।

(1) सजीव सम्पत्ति : जैसे—दास, सेवक, बैल, गाय, घोड़े आदि।

(2) निर्जीव सम्पत्ति: जैसे—खेत, मकान, मुद्रा, कृषि के औजार, आदि। यह दोनों प्रकार की सम्पत्ति परिवार के लिए उपयोगी है। स्वस्थ परिवार में दोनों प्रकार की सम्पत्ति का होना आवश्यक है।

सम्पत्ति की विशेषताएं – अरस्तू ने सम्पत्ति की दो विशेषताएं बतलायी हैं :

(1) समाज की स्वीकृति – सम्पत्ति समाज द्वारा स्वीकृत होनी चाहिए। अरस्तू उस वस्तु को सम्पत्ति नहीं मानता जो समाज की दृष्टि में सम्पत्ति नहीं है, भले ही किसी व्यक्ति या वर्ग का उस पर अधिकार हो और वह उनकी किसी आवश्यकता की पूर्ति करती हो।

(2) राज्य का संरक्षण – सम्पत्ति को राज्य का संरक्षण प्राप्त होना चाहिए, चाहे वह वैयक्तिक सम्पत्ति हो अथवा चाहे सार्वजनिक।

सम्पत्ति की सीमाएं – अरस्तू निजी सम्पत्ति के औचित्य को स्वीकार करता है, किन्तु वह सम्पत्ति को एक साधन मात्र मानता है और उसके अनुसार सम्पत्ति की कुछ सीमाएं हैं। प्रत्येक परिवार में उतनी ही सम्पत्ति होनी चाहिए, जितनी उसके समुचित जीवन-यापन के लिए आवश्यक हो। आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति का होना उतना ही बुरा है जितना कि आवश्यकता से कम होना।

अरस्तू ने सम्पत्ति की सीमा को निम्नलिखित उदाहरण देकर स्पष्ट किया है : “अपना कार्य करने के लिए हथौड़ा भारी होना चाहिए, पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि लुहार उसे अधिक-से-अधिक भारी बना दे। जो कार्य हथौड़े द्वारा किया जाना है, वही कार्य उसके भार को सीमित कर देता हैं और अच्छा लुहार इस सीमा को ध्यान में रखता है।” इस उदाहरण से अरस्तू का अभिप्राय है कि जिस प्रकार हथौड़े का भार उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य से सीमित होता है, उसी प्रकार सम्पत्ति की सीमा उसके उस कार्य से निश्चित की जानी चाहिए जो उसके द्वारा किया जाना है। जिस प्रकार आवश्यकता से अधिक भारी हथौड़ा बनाना गलती है, उसी प्रकार उससे अधिक सम्पत्ति का संचय करना गलती है, जितनी कि समुचित जीवन के लिए आवश्यक है। अरस्तू के शब्दों में, “अत्यधिक सम्पत्ति का संचय करना उतनी ही बड़ी गलती है। जितनी अत्यधिक भारी हथौड़ा बनाना”

सम्पत्ति का उपार्जन

अरस्तू के अनुसार सम्पत्ति के उपार्जन की दो विधियां हैं:

(1) प्राकृतिक विधि : सम्पत्ति के उत्पादन के लिए अपने श्रम और प्रकृति पर निर्भर रहना प्राकृतिक विधि से सम्पत्ति उपार्जन का तरीका है। प्राकृतिक उपायों के अन्तर्गत उन कार्यों को सम्मिलित किया जा सकता है जिसके आधार पर जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। कृषि, पशुपालन, शिकार को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

(2) अप्राकृतिक विधि : अप्राकृतिक विधि में व्यक्ति सम्पत्ति के उत्पादन के लिए अपने परिश्रम और प्रकृति पर निर्भर नहीं रहते हैं। वे अपने ही श्रम पर निर्भर रहने वाले व्यवसायों को न करके दूसरे व्यक्तियों से अनुचित रूप से धन का अर्जन करने वाले व्यवसायों में संलग्न रहते हैं। अरस्तू व्यापार को सम्पत्ति प्राप्त करने का अप्राकृतिक साधन मानता है क्योंकि इसका उद्देश्य सम्पत्ति का संग्रह होता है। व्यापार व्यवसाय में अत्यधिक मुनाफा कमाकर अपार सम्पत्ति संग्रह का प्रयत्न किया जाता है, इसलिए अरस्तू इसे सम्पत्ति प्राप्त करने का अप्राकृतिक साधन मानता है।

सम्पत्ति का वितरण तथा स्वामित्व

 अरस्तू ने सम्पत्ति के वितरण का भी सुन्दर विवेचन किया है। अरस्तू धन के दूषित वितरण और आर्थिक विषमता को रोकने के लिए तीन वैकल्पिक व्यवस्थाओं का वर्णन करता है :

(1) भूसम्पत्ति वैयक्तिक हो, किन्तु इसका उपयोग सामूहिक हो, सब लोग इसका समान रूप से उपयोग कर सके।

(2) सम्पत्ति सामूहिक हो, पर इसका उपयोग वैयक्तिक हो ।

(3) सम्पत्ति सामूहिक हो और इसका उपयोग भी सामूहिक हो ।

अरस्तू इन तीनों में से पहले विकल्प के पक्ष में है। उसका कथन हैं कि सम्पत्ति का स्वामित्व चाहे व्यक्तिगत हो, परन्तु उसका उपयोग सामूहिक रूप से होना चाहिए। अरस्तू के अनुसार सामूहिक उपयोग के द्वारा समाज सम्पत्ति के दोषों व दुर्गुणों से बचा रहेगा, परन्तु क्या व्यक्तिगत स्वामित्व और सामूहिक उपभोग दोनों साथ-साथ सम्भव हैं। इस सम्बन्ध में अरस्तू निम्न उपाय बताता है— (i) भूखण्ड पृथक व्यक्तियों की सम्पत्ति रहे पर उनकी उपज सबके उपभोग के लिए एक सार्वजनिक स्थान पर एकत्रित की जाए अथवा (ii) भूमि पर सबका समान अधिकार हो और उपज बांट दी जाए, अथवा (ii) भूमि सब व्यक्तियों में समान रूप से बांट दी जाए तथा उसकी उपज स्वयं ही सबको समान प्राप्त होगी।

दूसरे और तीसरे विकल्प का खण्डन करते हुए अरस्तू कहता है कि (i) जो वस्तु सबकी होती है, वह वास्तव में किसी की नहीं होती: (ii) यदि किसी वस्तु के सभी स्वामी होते हैं, तो किसी में भी उसके प्रति उत्तरदायित्व की भावना नहीं होती; (iii) यदि सब व्यक्तियों को अपने परिश्रम के अनुपात में पुरस्कार नहीं मिलता है, तो उनमें पारस्परिक संघर्ष या वैमनस्य उत्पन्न हो जाता है।

अरस्तू ने व्यक्तिगत सम्पत्ति का समर्थन तो किया है, पर इसके साथ ही उसने इस सम्पत्ति के वितरण में कुछ सीमा तक असमानता को भी आवश्यक बताया है। इस विषय में उसका तर्क यह है कि सम्पत्ति का असमान वितरण, धनी व्यक्तियों के लिए जन सेवा के अवसर सुलभ बनाता है। यदि धन का असमान विभाजन न हो, तो सार्वजनिक कल्याण के लिए किये जाने वाले कार्यों का कहीं चिन्ह भी न मिले।

इससे अरस्तू का अभिप्राय यह नहीं है कि सम्पत्ति के वितरण में अत्यधिक विषमता हो। इसके विपरीत, वह व्यक्तिगत सम्पत्ति का विभाजन निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत चाहता है। विभाजन में अत्यधिक असमानता वर्ग संघर्षों और क्रान्तियों को जन्म देती है। अरस्तू के शब्दों में, “सम्पत्ति की समुचित व्यवस्था करना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है क्योंकि यही एक ऐसा विषय है, जिससे सर्वदा क्रान्तियां उत्पन्न होती हैं।”

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