नव लोक प्रशासन

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परिचय 

1960 के दशक में लोक प्रशासन की सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक कमियों ने एक नए विचार को जन्म दिया, जिसे New Public Administration कहते हैं, जिसमें नव लोक प्रशासन के उद्भव के लिए आन्तरिक व बाह्य कारक उत्तरदायी माने जाते हैं।

1950 व 1960 के दशक में Technical Advancement प्रकृति ने जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया और प्रत्येक मानवीय विज्ञानों ने मानव का और उसके जीवन से जुड़े प्रत्येक पहलू का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया, जिससे लोक प्रशासन भी अछूता नहीं था, क्योंकि लोक प्रशासन ने व्यवहारवाद के माध्यम से जहाँ एक ओर सार्वभौमिक सिद्धान्तों के निर्माण का प्रयास किया, तो वहीं दूसरी ओर संगठन में मानवीय व्यवहार का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया। व्यवहारवाद ने लोक प्रशासन में ‘मूल्यमुक्त दृष्टिकोण’ के अध्ययन की वकालत की।

 

उदय के कारण

व-लोक प्रशासन के उदय के कारणों को दो प्रमुख रूपों में समझा जा सकता है, जो निम्न प्रकार हैं

1. आन्तरिक कारक

नव लोक प्रशासन उदय के आन्तरिक कारक में सिद्धान्त और व्यवहार ने नवीन लोक प्रशासन को आधार प्रदान किया, जहाँ सिद्धान्त कारक के अन्तर्गत साइमन का प्रत्यक्षवाद व वेबर की अनामता एवं तटस्थता और परम्परागत लोक प्रशासन के केन्द्रबिन्दु भी जिम्मेदार हैं। साइमन ने अपने तार्किक प्रत्यक्षवाद के माध्यम से लोक प्रशासन को विज्ञान बनाने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि प्रशासन में तब तक अवधारणाओं और सिद्धान्तों का निर्माण नहीं किया जा सकता, जब तक उनमें मूल्यात्मक तथ्यों को न्यूनतम स्तर तक न लाया जाए। इस तरह उन्होंने लोक प्रशासन में मूल्यों को नकारने का प्रयास किया, वहीं व्यवहारात्मक रूप से वेबर की नौकरशाही में तटस्थता और अनामता ने लोक प्रशासकों को संवेदनहीन और मूल्य-विहीन बनाने का कार्य किया, जो लोक-सेवकों की सामाजिक अभिकर्ता (Agent), अग्र सक्रिय प्रशासक और सकारात्मक भेदभाव को अपनाकर समाज में समता स्थापित करने वाली प्रशासकों की भूमिका को गौण कर दिया। वहीं परम्परागत लोक प्रशासन में ‘लोक’ की अपेक्षा ‘प्रशासन’ पर बल दिया। मूल्यों और दर्शन की अपेक्षा सिद्धान्तों और प्रक्रियाओं पर बल दिया तथा ‘प्रभावशीलता’ और ‘सेवा कार्यकुशलता’ की अपेक्षा कार्यकुशलता व मितव्ययिता को महत्त्व प्रदान किया।

2. बाह्य कारक

नव-लोक प्रशासन उदय के बाह्य कारक में मुख्य कारण संक्रमणशील अमेरिकी समाज रहा है, जिसमें अमेरिका में वियतनाम युद्ध, ब्लैक अमेरिकी आन्दोलन, शहरी हिंसा, कैम्पस में विचलन, राजनैतिक हिंसा, अमेरिकी गरीबी एवं बेरोजगारी और उनके प्रति प्रशासन की मन्द प्रतिक्रिया जिम्मेदार थी। साथ ही दो विश्वयुद्धों के बाद विश्व में अपनाए गए अनेक मानवीय सहायता कार्यक्रमों एवं आर्थिक पुनर्निर्माण कार्यक्रमों आदि को UNO और इसकी एजेन्सियों ने अंजाम दिया, लेकिन वे अपने कार्यों को अच्छी तरह नहीं कर पाए, क्योंकि विभिन्न देशों के प्रशासनिक तन्त्रों की अकार्यकुशलता और अप्रभावशीलता मुख्य जिम्मेदार थी, वहीं पूरे विश्व में गरीबी, बेरोजगारी, जनसंख्या आदि तेजी से बढ़ रही थी, जिसके समाधान के लिए प्रशासन को अधिक मानवीय तथा सजग बनाए जाने की आवश्यकता थी।

नवलोक प्रशासन का जन्म व वृद्धि

नवीन लोक प्रशासन शब्द का प्रयोग लोक प्रशासन में नवीन दार्शनिक खोज के रूप में प्रतिपादित किया गया है। वर्ष 1968 के पश्चात् लोक प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र में नए विचारों का उदय हुआ, जिसे नवीन लोक प्रशासन कहा गया। नवीन लोक प्रशासन को आगे बढ़ाने में फ्रेंक मैरीनी की पुस्तक ‘टुवर्ड्स ए न्यू पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन: द मिन्नोब्रुक पर्सपेक्टिव’ तथा ड्वाइट वाल्डो की रचना ‘पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन इन ए टाइम ऑफ टरबुलेन्स’ का प्रशंसनीय योगदान रहा है।

नवीन लोक प्रशासन के विद्वानों के अनुसार, “मूल्यों की आधारशिला पर ही ज्ञान की इमारत खड़ी की जा सकती है। नवीन लोक प्रशासन शोध की प्रासंगिकता पर बल देते हुए यह कहते हैं कि अनुसन्धान के लिए परिष्कृत उपकरणों का विकास करना उपयोगी है, परन्तु उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसके लिए इन उपकरणों को प्रयोग में लाया जा रहा है।

1. हनी प्रतिवेदन (अप्रैल-मई, 1967)

प्रो. हनी सिराक्यूज विश्वविद्यालय में उपकुलपति थे। इन्हें अमेरिका की लोक प्रशासन सोसायटी ने ‘लोक सेवाओं के लिए उच्च शिक्षा’ नामक विषय पर गठित एक समिति (1966) का अध्यक्ष बनाया था, जिसका उद्देश्य विश्वविद्यालय में लोक प्रशासन को पढ़ाने से सम्बन्धी विकल्पों पर विचार करना था। वर्ष 1967 में प्रो. हनी ने लोक प्रशासन सोसायटी को अपना प्रतिवेदन सौंपा, जिसमें लोक प्रशासन की वास्तविक स्थिति को प्रकट किया गया था।

इस प्रतिवेदन के आधार पर विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में लोक प्रशासन के सामने निम्न समस्याएँ थीं

1. विषय संकाय की स्थापना एवं शोध हेतु पर्याप्त धन का अभाव।

2. यह बौद्धिक वाद-विवाद है कि लोक प्रशासन एक अनुशासन (विषय) है, विज्ञान या व्यवसाय मात्र है।

3. लोक प्रशासन के वर्तमान विभागों (एजुकेशनल डिपार्टमेण्ट्स) में अपूर्णताएँ।

4. इस विषय के विद्वानों और सेवारत प्रशासकों में दूरी।

प्रो. हनी द्वारा सुझाई गई समस्याओं की चुनौतियों से निपटने और लोक प्रशासन में अध्ययनगत रुचि बढ़ाने हेतु प्रतिवेदन में निम्नलिखित सुझाव दिए गए

1. ‘लोक सेवा शिक्षा’ पर राष्ट्रीय आयोग की स्थापना, जो सरकार को प्रशासनिक रूप से आवश्यक शिक्षित मानव उपलब्ध करा सके।

2. लोक प्रशासन के स्नातकोत्तर विद्यार्थियों और अध्यापकों को छात्रवृत्ति दी जाए। उक्त अध्यापकों को सरकारी कामकाज का व्यावहारिक ज्ञान कराया जाए।

3. सरकारी और अन्य सार्वजनिक मामलों से सम्बन्धित शोध कार्यों में लगे शोधकर्ताओं को आर्थिक सहायता दी जाए।

4.उक्त शोध कार्यों को संचालित करने हेतु विश्वविद्यालयों को अनुदान दिया जाए।

5. संघीय, प्रान्तीय और स्थानीय सरकारें भी सरकारी प्रशासन और सार्वजनिक मामलों से सम्बन्धित शैक्षणिक संस्थाओं और कार्यक्रमों को वित्तीय सहायता प्रदान करें।
6. संघीय, प्रान्तीय और स्थानीय शासन के सरकारी कार्मिकों को पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाए।

7. नवीन लोक प्रशासन कार्यक्रम हेतु एक नई परामर्शदात्री सेवा शुरू की जाए, ताकि प्रशासन के विद्यार्थियों को नवीनतम् सूचनाएँ प्राप्त होती रहें।

8. लोक सेवा और सार्वजनिक मामलों से सम्बन्धित शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के क्रियान्वयन और प्रगति की निरन्तर समीक्षा हो।

2. फिलाडेल्फिया सम्मेलन (दिसम्बर, 1967)

इस सम्मेलन के अध्यक्ष जे. सी. चार्ल्सबर्थ थे। अमेरिका की ‘राजनीतिशास्त्र एवं समाजशास्त्र समिति’ ने इसका आयोजन करवाया था। इसका विषय था ‘लोक प्रशासन के सिद्धान्त एवं व्यवहार क्षेत्र, उद्देश्य और पद्धति।’

फिलाडेल्फिया सम्मेलन की प्रमुख अनुशंसाएँ निम्नलिखित हैं

1. प्रशासन के कार्यक्षेत्र का निरन्तर विकास हुआ है। अतः लोक प्रशासन की परिभाषा और क्षेत्र दोनों का निर्धारण कठिन है, अतः इसके क्षेत्र का स्वरूप लचीला रखा जाए।

2. नीति निर्माण और नीति क्रियान्वयन अर्थात् राजनीति प्रशासन द्विभाजकता गलत है। प्रशासन नीतियों के निर्माण में भी भाग लेता है।

3. राजनीति शास्त्र और लोक प्रशासन दोनों पृथक् और स्वायत्त विषय हैं।

4. लोक प्रशासन के अध्ययन में सभी प्रचलित दृष्टिकोणों को समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता है। कुछ ही भाग का अध्ययन वैज्ञानिक पद्धति से किया जा सकता है, जिस भाग का अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं किया जा सकता। वह लोक प्रशासन का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है।

5. लोक प्रशासन में प्रबन्धकीय मामलों का स्थान अब नीति या राजनीति से सम्बन्धित बातें ले रही है।

6. लोक प्रशासन में कार्यकुशलता, मितव्ययिता, उत्तरदायित्वता आदि के साथ ‘सामाजिक समानता’ को भी प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिए।

7. लोक प्रशासन न केवल सामाजिक समस्याओं से निपटने में असफल रहा है, बल्कि वह अनेक सामाजिक समस्याओं विशेषकर विकासशील देशों की गरीबी, बेकारी, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक समस्याएँ, झुग्गी, गन्दी बस्तियाँ आदि के बारे में उदासीन है, जो अनुचित है।

8. भावी प्रशासकों को निजी प्रबन्ध के स्कूलों में प्रशिक्षण दिया जाएगा। यद्यपि दोनों के प्रशिक्षण की विषय-वस्तु विशेष अर्थात् अलग-अलग हो।

9. लोक प्रशासन में शिक्षण-प्रशिक्षण का उद्देश्य प्रबन्धकीय कार्यकुशलता के साथ सामाजिक संवेदना का विकास करना भी है। इस हेतु प्रशिक्षण विषयों में मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र आदि भी शामिल किए जाएँ।

10. लोक प्रशासन विषय में आदर्शात्मक प्रशासनिक सिद्धान्तों के साथ वर्णनात्मक और विश्लेषणात्मक सिद्धान्त भी अस्त-व्यस्त अवस्था की स्थिति में हैं।

3. प्रथम मिन्नोब्रुक सम्मेलन (1968)

मिन्नोब्रुक सम्मेलन का प्रारम्भ ही इस माँग के साथ हुआ कि परम्परागत लोक प्रशासन अप्रासंगिक है, अब नए लोक प्रशासन की जरूरत है। यह सम्मेलन डी. वाल्डो की अध्यक्षता में किया गया। इस सम्मेलन में तेजी से बदलते वातावरण के सन्दर्भ में लोक प्रशासन के अध्ययन व व्यवहार का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया गया।

इसमें आनुभविक अध्ययन अर्थात् ‘मूल्यमुक्त दृष्टिकोण’ के स्थान पर ‘आदर्शात्मक दृष्टिकोण’ अर्थात् मूल्ययुक्त दृष्टिकोण की वकालत की और माना कि लोक प्रशासन का मुख्य उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक असमानता को कम करते हुए लोगों के कल्याण के लिए कार्य करना है। इसमें लोक प्रशासन को जनहित से सम्बद्ध किया। यह ‘युवा विद्वानों का सम्मेलन’ था, जिसमें माना गया कि लोक प्रशासन के विषय में एक पीढ़ीगत रिक्तता आ गई है, जिसकी ओर ध्यान देना आवश्यक है। मिन्नोब्रुक सम्मेलन ही नवीन लोक प्रशासन की शुरुआत है। यह मूल्यमुक्त दृष्टिकोण की अपेक्षा मूल्ययुक्त दृष्टिकोण पर बल देता है और संवेदनशील प्रशासन की वकालत करता है।

4. द्वितीय मिन्नोब्रुक सम्मेलन (सितम्बर, 1988)

द्वितीय मिन्नोब्रुक सम्मेलन वर्ष 1988 में हुआ। यह सम्मेलन एक भिन्न सम्मेलन था। इस सम्मेलन में नेतृत्व, संवैधानिक विधिक परिप्रेक्ष्य पर आधारित किया गया। इस सम्मेलन में भी सिद्धान्त पर बल दिया गया था और लोक प्रशासन का एक स्वतन्त्र विषय के रूप में अध्ययन करना था।

4 सितम्बर, 1988 को सिराक्क्रुज विश्वविद्यालय में सम्मेलन की बैठक हुई, इसमें नीति विज्ञान से सम्बन्धित 60 विद्वानों ने भाग लिया। नवीन लोक प्रशासन के क्षेत्र में कुछ पुस्तकें भी इस सम्मेलन में प्रस्तुत की गई, जिसमें प्रमुख पुस्तकें मैरीनी की रचना ‘टूवर्ड ए न्यू पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन : मिन्नोब्रुक पर्सपेक्टिव’ (Towards a New Public Administration: Minnowbrook Perspective) तथा वाल्डो की रचना ‘पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन इन ए. टाइम ऑफ टरबुलेन्स’ (Public Administration in a Time of Turbulance) नवलोक प्रशासन सम्बन्धी विचारों का संकलन है और इनको नवीन लोक प्रशासन में सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

नवीन लोक प्रशासन के केन्द्रीय विषय

नवीन लोक प्रशासन के केन्द्रीय विषयों में सम्मिलित हैं

1. प्रासंगिकता

परम्परागत लोक प्रशासन मितव्ययिता तथा कार्यकुशलता में अधिक रुचि रखता था, लेकिन समकालीन समस्याओं व जटिल मुद्दों में केवल मितव्ययिता व कार्यकुशलता ही आवश्यक नहीं है, बल्कि प्रभावशीलता और नैतिकता भी आवश्यक है। प्रत्येक समाज में भिन्न-भिन्न प्रकार की समस्याएँ होती हैं, इसलिए उनके लिए अलग प्रकार के समाधान और सामाजिक रूप से प्रासंगिक परिवर्तन किए जाने चाहिए। अतः प्रासंगिकता में प्रशासनिक दायित्व से सामाजिक दायित्व की ओर बढ़ा जाता है।

2. मूल्य

परम्परागत लोक प्रशासन और व्यवहारवाद लोक प्रशासन के अध्ययन के लिए मूल्यमुक्त दृष्टिकोण की वकालत करता है, लेकिन NPA समर्थकों का मानना है कि लोक प्रशासन निर्वात में कार्य नहीं करता, वह सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से प्रभावित होता है और उसे करता भी है। NPA मूल्य तटस्थ दृष्टिकोण को नकारता है और मूल्य आधारित दृष्टिकोण को स्वीकार करता है, जो इसका मुख्य आधार है।

3. सामाजिक समानता

युवा चिन्तकों ने समाजवादी क्रान्ति का आह्वान किया। पूँजीवादी-लोकतान्त्रिक अमेरिकी समाज में सामाजिक समानता का नारा आश्चर्यजनक जरूर था, लेकिन परिस्थितियों पर दृष्टि डालें, तो यह उस समय की विषम सामाजिक-आर्थिक जरूरतों के अनुकूल था। फिर इसका आशय इसके सामान्य आशय से अधिक व्यापक लगाया गया। सामाजिक-आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए न केवल मजबूत वितरण प्रणाली की जरूरत होती है, अपितु इसका क्रियान्वयन करने वाले लोक प्रशासन में भी उतनी ही मजबूत भावना होना जरूरी है। नवलोक प्रशासन का यह सिद्धान्त विकासशील देशों में अत्यधिक प्रासंगिक और महत्त्व रखता है।

मोहित भट्टाचार्य के अनुसार, इस नारे से ही नव-बेन्थमवाद निकला है, जिसके अनुसार लोक प्रशासन में सबसे प्रमुख मसला सरकारी संस्थाओं के कार्यों और उनके परिणामों का मूल्यांकन करना है। यदि लोक प्रशासन समानता के लिए आवश्यक परिवर्तन सुनिश्चित नहीं कर रहा है, तो इस बात की पूरी सम्भावना है कि वह वंचितों के शोषण में सम्पन्नों का साथ दे। फ्रेडरिक्सन ‘नवलोक प्रशासन’ (1980) नामक अपनी पुस्तक में कहते हैं कि “जो लोक प्रशासन अल्पसंख्यक, पिछड़ों के पिछड़ेपन को दूर करने वाले परिवर्तन लाने में विफल रहता है, अन्ततः उसका उपयोग इनके शोषण में ही होता है।” स्पष्ट है कि सामाजिक समानता समविकास की योजना का आधार है। इसमें मात्रात्मक विकास के बजाय गुणात्मक विकास पर मुख्य बल दिया गया है।

4. सामाजिक परिवर्तन

समानता के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए परिवर्तन आवश्यक है। परम्परागत लोक प्रशासन यथास्थितिवादी था, जबकि नव-प्रशासन परिवर्तनवादी है। यह परिवर्तन आक्रामक तेवरों से युक्त है। वह समाज के कमजोर वर्ग की स्थिति में तीव्र सकारात्मक परिवर्तन को अपना आदर्श घोषित करता है। शक्तिशाली हित समूहों और उनका संरक्षण करने वाली संस्थाओं के विरुद्ध इनसे शोषित रहे वर्ग को अपनी शक्ति प्रदान करता है। वस्तुतः परिवर्तन तब तक नहीं हो सकता, जब तक प्रशासन में प्रतिक्रिया की इच्छा शक्ति नहीं हो। नवलोक प्रशासन ऐसी ही प्रतिक्रिया से युक्त है, जो न केवल सामाजिक परिवर्तनों को स्थायित्व देने के लिए उनका संस्थानीकरण करता है, अपितु समाज को बाध्य करता है कि उन परिवर्तनों को अपनाए। इस कारण नवलोक प्रशासन में सामाजिक परिवर्तन के समायोजन की लोचशीलता और बाध्यकारी परिवर्तन लाने की कठोरता दोनों का सुन्दर समन्वय पाया जाता है।

5. राज्य की भूमिका

यह समय उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण का समय था, जिसमें सरकार को अनावश्यक कार्यक्षेत्र से हटने तथा व्यापार व वाणिज्य को निजी क्षेत्र या बाजार को सौंप देने की वकालत की गई और कहा गया है कि इसमें राज्य की भूमिका को ‘सेवाप्रदायक’ से ‘सुविधाप्रदायक’ में परिवर्तित किए जाने का प्रयास किया गया है। अत: LPG की क्रिया के माध्यम से राज्य की भूमिका सीमित करने का सुझाव दिया गया।

6. लोक प्रशासन की भूमिका

द्वितीय मिन्नोब्रुक सम्मेलन ने प्रशासन को अधिक प्रदर्शन-उन्मुखी, पारदर्शी, जन-भागीदारी, संवेदनशील, सामाजिक योग्यता विकास, प्रौद्योगिकी से सम्बन्ध स्थापित क II, सिद्धान्त तथा व्यवहार में समानता लाना आदि हैं। लोक प्रशासन में संरचनात्मक सुधार; जैसे-विकेन्द्रीकरण, विस्तारीकरण, विनौकरशाहीकरण आदि किए जाने चाहिए। यह लोक प्रशासन में सक्षमता निर्माण, HRD का विकास, नई प्रबन्धन तकनीकों का उपयोग आदि को लाने की सिफारिश करता है।

नवलोक प्रशासन की विशेषताएँ 

मिन्नोब्रुक निष्कर्षों से नवलोक प्रशासन की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रकट होती हैं

1. समाकलित या एकीकृत प्रशासन

यह राजनीति-प्रशासन, निर्माण नीति क्रियान्वयन, संरचनात्मक और कार्यात्मक प्रशासन, प्रबन्धकीय कार्य और सामाजिक न्याय, सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक समायोजन आदि का एकीकृत स्वरूप है।

2. राजनीति-प्रशासन की द्विभाजकता अस्वीकार्य

राजनीति-प्रशासन की पृथक्कता को नवलोक प्रशासन में चुनौती दी गई। गोलम्बयुस्की ने तो प्रशासन को राजनीति पर वरीयता देते हुए कहा कि “महत्त्वपूर्ण कार्यों में प्रशासन राजनीति को प्रवर्तित कर सकता है, लेकिन राजनीति प्रशासन को नहीं।” माहेश्वरी के शब्दों में, “नीति विज्ञान ने राजनीति-प्रशासन के भेद को समाप्त कर दिया है।”

3. अन्तर्विषयक दृष्टिकोण

वस्तुतः प्रशासन को ‘नीति-विज्ञान’ मानने से ही उसकी प्रकृति अन्तर्विषयक हो जाती है। इकबाल नारायण के अनुसार, लोक प्रशासन वह योजक है, जो सरकार को जनता के साथ जोड़ता है और यह वह बकसुआ (कड़ी) है, जो प्रत्येक क्षेत्र में राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था को एकसाथ जोड़ता है। इस दृष्टिकोण ने लोक प्रशासन को राजनीति के साथ अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास, भूगोल, मानवशास्त्र, प्रबन्ध, अंकगणित आदि से सम्बन्धित कर दिया। नूरजहाँ बीबी ने तो नवलोक प्रशासन के सिद्धान्तों के सन्दर्भ में लोक प्रशासन को ‘सामाजिक विज्ञानों का सामाजिक विज्ञान’ तक कह डाला।

4. पदसोपानिक अवधारणा का विरोध

नवलोक प्रशासन की मान्यता है कि पदसोपानिक ढाँचा सत्ता-उन्मुखी होता है, कायर्योन्मुखी नहीं अर्थात् उच्च स्तर अधिकारों की दृष्टि से प्रभाव रहता है, कार्य सम्पादन की दृष्टि से नहीं। अतः यह पदसोपानिक कठोर ढाँचे के स्थान पर छोटे-छोटे लचीले ढाँचों की वकालत करता है।

5. विकेन्द्रीकरण और प्रत्यायोजन

विकेन्द्रित संस्थाएँ अधिक कार्यदक्ष, जनोन्मुख और लचीली होती हैं। अधीनस्थ स्तरों पर अधिकारों का प्रत्यायोजन कार्य की गति को बढ़ा देता है।

6. मूल्योन्मुखी आदर्शात्मक प्रशासन

परम्परागत लोक प्रशासन मूल्य निरपेक्ष था। उसमें कार्यकुशलता और मितव्ययिता पर अधिक बल दिया जाता रहा, लेकिन नवलोक प्रशासन ने इनके ऊपर मूल्यों, नैतिकता, आदर्शों को वरीयता दी। फ्रेडरिक्सन के अनुसार, सामाजिक समता वह मुख्य संकल्पना है, जिसे नवलोक प्रशासनवादी महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक मूल्य के रूप में स्वीकारते हैं। इसका सम्बन्ध मूल्यों के चयन के साथ उनकी पूर्ति हेतु संरचनात्मक मॉडल और प्रबन्धकीय पद्धति के निर्धारण में भी है। नीग्रो के शब्दों में, “नवीन लोक प्रशासन ने मूल्य और नैतिकता को लोक प्रशासन की मुख्य विषय-वस्तु बना दिया है।”

7. ग्राहकोन्मुखी प्रशासन

प्रशासन को जनता से उसकी प्राथमिकताएँ, इच्छाएँ, अपेक्षाएँ आदि पूछनी चाहिए और उसके अनुरूप सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए।

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