अरस्तू का शिक्षा सिद्धांत

प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत की भांति अरस्तू का शिक्षा सिद्धांत भी महत्वपूर्ण और विचारणीय माना जाता है। प्लेटो की भांति अरस्तू को भी इस बात का दुःख था कि स्पार्टा जैसे नगर राज्य में शिक्षा की उत्तम योजना विद्यमान थी, किन्तु फिर भी एथेन्स ने उसका अनुसरण नहीं किया। अतः दोनों के चिन्तन में अपने नगर राज्य के बालकों की शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण शिक्षा योजना का प्रारूप (Plan for Education) प्रस्तुत किया गया है।

अरस्तू ने पॉलिटिक्स की सातवीं और आठवीं पुस्तकों में अपने शिक्षा सिद्धान्त की विवेचना की है। यहां यह उल्लेखनीय है कि पॉलिटिक्स के अन्तिम भागों में ही अरस्तू ने शिक्षा पर प्रासंगिक विचार प्रकट किये हैं, अतः उसकी शिक्षा की रूपरेखा के पूर्ण होने के पूर्व ही पॉलिटिक्स समाप्त हो जाती है। वैसे भी पॉलिटिक्स का कुछ अन्तिम अंश लुप्त हो गया है। विद्वानों का मानना है कि अरस्तू ने लुप्त अंश में ही अपनी शिक्षा की रूपरेखा पूरी की होगी। फिर भी उसके जो भी शिक्षा सम्बन्धी विचार उपलब्ध हैं, वे अति महत्वपूर्ण हैं।

 

अरस्तू के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य

प्लेटो के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य था व्यक्ति द्वारा सद्गुणों की प्राप्ति, जिससे कि वह स्वयं को अन्य लोगों से श्रेष्ठ सिद्ध कर सके, किन्तु अरस्तू की शिक्षा का उद्देश्य ऐसे श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण करना है जो परम विवेकशील हों और उसके माध्यम से राज्य सम्बन्धी विषयों का चिन्तन कर सकने की स्थिति में हों।

अरस्तू ने शिक्षा के अनेक उद्देश्य बतलाये हैं। शिक्षा सम्बन्धी उसकी धारणा व्यक्ति को सुखी और सदाचारी बनाना चाहती है, व्यक्ति के चरित्र का नैतिक निर्माण करके उसे राज्य का आज्ञापालक एवं उपयोगी सदस्य बनाना चाहती है; अवकाश के उचित उपयोग, भावनात्मक शक्तियों के विकास और समन्वित जीवन की उत्पत्ति का ध्येय रखी है तथा राजकीय संविधान के अनुकूल सर्वांगीण और श्रेष्ठ मानव जीवन सम्भव करना चाहती है। संक्षेप में अरस्तू की शिक्षा योजना के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

1. व्यक्ति का सर्वांगीण विकास – अरस्तू शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना चाहता है। उसने अपनी शिक्षा योजना में बालकों को शारीरिक, मानसिक और नैतिक दृष्टि से उत्तम नागरिक निर्मित करने का प्रयास किया है।

2. शिक्षा का राजनीतिक उद्देश्य – अरस्तू ने शिक्षा को राजनीति का एक अंग माना है। उसने विभिन्न राजनीतिक विषयों के अध्ययन पर जोर न देकर यह कहा है कि राज्य के नागरिकों को शिक्षा के माध्यम से संवैधानिक स्वरूप के सांचे में ढालने का प्रयास किया जाना चाहिए।

3. शिक्षा का नैतिक उद्देश्य – अरस्तू ने शिक्षा के माध्यम से ज्ञान की अभिवृद्धि के बजाय चारित्रिक विकास को अधिक महत्त्व दिया है और कहा है कि शिक्षा मानव जीवन में विनम्रता, उदारता, न्यायप्रियता, आदि सदगुणों का संचार करती है।

4. कला का विकास – अरस्तू ने अपने शिक्षा सिद्धान्त में दर्शन और विज्ञान के बजाय कला के विकास पर बल दिया है। उसने शिक्षा के कलात्मक उद्देश्य का महत्व स्वीकारते हुए व्यायाम और संगीत पर विशेष जोर दिया है।

जहां प्लेटो ने राज्य के संरक्षकों और सैनिकों के लिए अलग-अलग प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की वहां अरस्तू ने सभी नागरिकों के लिए एक जैसी शिक्षा की व्यवस्था की क्योंकि उसकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य उन्हें उत्तम नागरिक बनाना है ताकि वे उत्तम मनुष्य बन सकें।

 

अरस्तू अनुसार शिक्षा के कार्य

अरस्तू के अनुसार मानव समाज के हाथ में शिक्षा वह साधन है, जो मनुष्य की आदतों का परिमार्जन करने तथा उसकी विवेकशीलता को यथोचित प्रोत्साहन देने में बहुत सहायक सिद्ध होता है। शिक्षा ऐसा माध्यम है, जो व्यक्ति में श्रेष्ठ गुणों का निर्माण करता है। यदि शिक्षा के सांचे में ढालकर व्यक्ति को पूर्ण न बनाया जाये तो वह बड़ा खतरनाक प्राणी सिद्ध होगा। कारण यह है कि जन्म से ही व्यक्ति प्रज्ञान तथा चारित्रिक गुणों के दो शस्त्रों से युक्त होता है, जो अपने अपरिमार्जित रूप में मानव को खूंखार बना देते हैं। अतः यह नितान्त आवश्यक है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को गुणवान एवं नियमपालक बनने का राज्य द्वारा सक्रिय कदम उठाया जाये। संक्षेप में, अरस्तू के अनुसार शिक्षा के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं :

1. सद्जीवन की प्राप्ति में सहायता – अरस्तू के अनुसार राज्य का प्रमुख उद्देश्य सद्जीवन की प्राप्ति है और शिक्षा का प्रमुख कार्य सद्जीवन की प्राप्ति में सहायता देना है। जैसा कि आर. के. मिश्र ने लिखा है.” शिक्षा के बिना सुखी और सदाचारी जीवन असम्भव है। शिक्षा सुख या अच्छे जीवन की शर्त है और सदाचारी जीवन की प्राप्ति का साधन है।

2. मानव आवश्यकताओं की पूर्ति का कार्य – मानव की तीन प्रकार की आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में तीन प्रकार की क्रियाएं-चिन्तनात्मक, क्रियात्मक और परिचर्यात्मक प्रमुख हैं। चिन्तनात्मक भाग की संगति क्रिया विवेक (Wisdom) है, क्रियात्मक भाग की संगति क्रिया नैतिकता (Moralty) है और परिचर्यात्मक भाग की संगति क्रिया आत्मसंयम है। इनमें विवेक नैतिकता और आत्मसंयम से अधिक महत्वपूर्ण है, नैतिकता आत्मसंयम से उत्कृष्ट है। तीनों प्रकार की क्रियाओं के बीच समन्वय होना चाहिए, यही जीवन का पूर्णत्व है। शिक्षा का कार्य व्यक्ति को पूर्णत्व प्रदान करना है।

3. अच्छे नागरिकों का निर्माण – अरस्तू शिक्षा द्वारा अच्छे नागरिक पैदा करना चाहता है। व्यक्ति के अन्दर पशुत्व, वासना और विवेक तीनों ही है। शिक्षा के द्वारा अपने वासनात्मक जीवन में व्यक्ति आत्म-संयम लाता है और विवेक की क्षमता को बढ़ाता है। “व्यक्ति जब कानून और न्याय की अवज्ञा करता है तो सबसे बुरा पशु बन जाता है, जब वह दुष्चरित्रता में पड़ता है तो वह सबसे भयानक पिशाच बन जाता है इसलिए पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सभी को राज्य के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।”

4. राज्य के मूल सिद्धान्तों का प्रवर्तन – शिक्षा राज्य के मूल सिद्धान्तों के प्रति जनमत तैयार करती है। राज्य के कानून और आदेशों के प्रति लोगों में श्रद्धा पैदा करती है। अरस्तू के अनुसार शिक्षा की योजना राज्य द्वारा चलाई जाती है। अतएव यह स्वाभाविक है कि राज्य की शिक्षा का उद्देश्य राज्य के प्रति श्रद्धा और निष्ठा के भावों को जाग्रत करना है। शिक्षा इसलिए राज्य के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक और बाहक है। शिक्षा के द्वारा ही लोगों में राज्य की आज्ञा व कानूनों के पालन की प्रवृत्ति पैदा की जा सकती है।

5. सामाजिक गुणों का विकास– शिक्षा का कार्य मनुष्य में सामाजिक गुणों का विकास करना है। शिक्षा मनुष्यों में सहयोग, सामंजस्य, सहिष्णुता, आदि गुणों का विकास करती है।

 

अरस्तू की शिक्षा योजना

अरस्तू की शिक्षा योजना को तीन भागों या सोपानों (Stages) में बांटा जा सकता है- पहला सोपान जन्म से 7 वर्ष की उम्र तक, दूसरा सोपान 7 से 14 वर्ष तक और अन्तिम तीसरा सोपान 14 से 21 वर्ष की उम्र तक निर्धारित किया गया है। इस प्रकार अरस्तू की शिक्षा योजना तीन सप्तवर्षीय योजनाओं में विभक्त है और प्रत्येक सोपान सात वर्ष की कालावधि व्यक्त करता है।

शिक्षा का प्रथम सोपान – इस अवस्था में पालने से लेकर 7 वर्ष की अवस्था तक के बच्चों के शिक्षण की व्यवस्था है। यह शिक्षा घर पर ही माता-पिता की देख रेख में होनी चाहिए। शिक्षा के इस प्रथम सोपान को अरस्तू ने तीन भागों में विभक्त किया है- (अ) शैशवावस्था, (ब) पांच वर्ष की उम्र तक की शिक्षा, तथा (स) 5 वर्ष से लेकर 7 वर्ष की उम्र तक की शिक्षा। शैशवावस्था में बच्चों के पालन-पोषण, खुराक एवं स्वास्थ्य परीक्षण पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। अरस्तू के अनुसार इस अवस्था में नवजात शिशुओं को दूध अधिक पिलाना चाहिए और शराब कम क्योंकि दूध से शक्ति मिलती हैं जबकि शराब से कई तरह के रोग हो जाते हैं। बच्चों को अधिक से अधिक क्रियाशील बनाने की चेष्टा की जानी चाहिए। इस अवस्था में बच्चों का शरीर जितना हिलता डुलता तथा गतिमान रहता है उतना ही उनके शरीर को लाभ होता है, उन्हें ठण्ड सहन करने का अभ्यासी बनने पर बल देना चाहिए ताकि वह कष्ट सहिष्णु हो सकें। इस अवस्था में बच्चे को कोई ऐसा पाठ या कार्य नहीं देना चाहिए जो उसकी वृद्धि में बाधक हो जाये। इसे चलाना फिराना आवश्यक है जिससे वह लंगड़ा न होने पाये। इसके लिए उसे छोटे-मोटे खेल सिखलाये जाने चाहिए।

शैशवावस्था की समाप्ति के बाद बच्चों की पांच वर्ष तक की उम्र का काल शारीरिक विकास का काल होता है। इसमें बच्चों के शारीरिक गठन की ओर बहुत ध्यान देना चाहिए, उन पर पढ़ाई का बोझ नहीं डालना चाहिए, उनके अंगों के संचालन के लिए मनोरंजक खेलों का प्रबन्ध होना चाहिए। उन्हें ऐसी कहानियां सुनानी और खेल खिलाने चाहिए जो उन्हें भावी जीवन के लिए तैयार करने में सहायक हों। बच्चों को कुसंगति से बचाना चाहिए, उन्हें न तो गालियां सुनने देनी चाहिए और न ही अश्लील चित्र देखने देने चाहिए। बचपन में पड़े संस्कार गहरे होते हैं, अतः वह बच्चों को निम्नकोटि की किसी वस्तु के सम्पर्क में नहीं आने देना चाहता है।

5 से 7 वर्ष की उम्र तक के बच्चों के लिए अरस्तू ने यह कहा है कि उन्हें उन कार्यों को करते हुए देखने का अवसर मिलना चाहिए जिन्हें वे भविष्य में स्वयं करेंगे। इस आयु के बच्चों को भी अभद्र और अश्लील तथा बुरी वस्तुओं के प्रभाव से बचाना चाहिए। शासकों को इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि कहीं भी अश्लील और अशोभन कार्यों की अनुकृति करने वाली मूर्तियों का चित्र न हो। शिक्षा के अधीक्षक को चाहिए कि वह यह देखे कि बच्चे अपने अवकाश का समय किस प्रकार बिताते हैं। बच्चों को दासों की संगति में कम से कम रखना चाहिए।

शिक्षा का दूसरा सोपान – शिक्षा योजना का दूसरा सोपान 7 वर्ष से 14 वर्ष की उम्र तक है। इस अवधि में लड़के या लड़की के शारीरिक विकास के साथ उन्हें कुछ पढ़ना और लिखना भी सिखाया जाना चाहिए। पढ़ाई लिखाई और चित्रकला उपयोगी विषय होने के कारण पढ़ाये जाने चाहिए। व्यायाम का प्रशिक्षण साहस पैदा करने के लिए आवश्यक है। बच्चों के व्यायाम से अरस्तू का तात्पर्य उछल कूद, मुक्केबाजी और कुश्ती से है। अरस्तू ने कठोर व्यायाम का नहीं बल्कि हल्के व्यायाम का समर्थन किया है। अधिक और कठोर व्यायाम बच्चों की शारीरिक वृद्धि को हानि पहुंचाता है और उनकी आकृति को बिगाड़ता है। बच्चों से व्यायाम उतना ही कराया जाना चाहिए जिससे उनका शारीरिक विकास हो। इस अवस्था में अरस्तू ने व्यायाम के साथ-साथ पढ़ने-लिखने, चित्रकारी और रंगचित्र की भी कुछ शिक्षा देने को कहा है। अरस्तू के अनुसार, इस अवस्था में बच्चों की शिक्षा राज्य के नियन्त्रण में दी जानी चाहिए।

शिक्षा का तीसरा सोपान – शिक्षा का तीसरा सोपान 14 वर्ष की आयु से 21 वर्ष की आयु तक है। अरस्तू का कहना है कि इस सोपान में बालकों को उस सरकार के स्वरूप के अनुरूप प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जिसकी अधीनता में उनको रहना है। इसके अतिरिक्त उनके मानसिक और शारीरिक विकास की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

अरस्तू के अनुसार बालकों का अधिकतम मानसिक विकास करने के लिए 14 से 17 वर्ष की आयु तक निरन्तर गम्भीर अध्ययन करना चाहिए। उनके अध्ययन के विषय होने चाहिए पढ़ना लिखना, चित्रकला, संगीत, अंकगणित और रेखागणित। अरस्तू ने संगीत विद्या के अध्ययन पर सबसे अधिक जोर दिया है। अरस्तू संगीत को आत्मा का गुण मानता है, जब तक संगीत की शिक्षा नहीं होगी, आत्मा का पूर्ण विकास नहीं हो सकेगा, संगीत मनुष्य के नैतिक जीवन के विकास में भी बहुत सहायक है। अरस्तू ने 18 से 21 वर्ष की उम्र तक की चार वर्ष की अवधि को व्यायाम और सैनिक प्रशिक्षण काल माना है। इस आयु में व्यायाम और कड़ा परिश्रम करवाया जाना चाहिए।

अरस्तू ने इन दोनों अवधियों को एक दूसरे से पृथक रखकर मस्तिष्क और शारीरिक दोनों के विकास को स्वतन्त्र और निर्बाध रखने पर जोर दिया है। इस सम्बन्ध में उसका विचार है कि “मस्तिष्क और शरीर से एक ही समय में कार्य किया जाना ठीक नहीं है। दो विभिन्न प्रकार के कार्य स्वाभाविक रूप से विभिन्न और वास्तव में विरोधी परिणाम उत्पन्न करते हैं। शारीरिक कार्य मस्तिष्क को कुण्ठित कर देता है और मानसिक कार्य शरीर की वृद्धि को रोक देता है।”

 

अरस्तू के शिक्षा सिद्धान्त की विशेषताएं

अरस्तू के शिक्षा सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएं हैं :

(1) शिक्षा पर राज्य का पूर्ण नियन्त्रण – प्लेटो की भांति अरस्तू शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का पूर्ण नियन्त्रण चाहता है। उसका मत है कि राज्य में निवास करने वाले व्यक्तियों की प्रकृति को शासन और संविधान के अनुकूल ढालना पड़ता है ताकि वे राज्य के स्वरूप के साथ संगति रखें। यह तभी सम्भव है जब शिक्षा पद्धति पर राज्य का नियन्त्रण हो। शिक्षा को व्यक्तिगत हाथों और संस्थाओं के स्वामित्व में छोड़ देने से शिक्षा में विविधता आ जायेगी, परन्तु राज्य की शिक्षा में विविधता नहीं बल्कि एकरूपता की जरूरत है क्योंकि राज्य का अन्तिम उद्देश्य एक होता है।

(2) शिक्षा राज्य का दायित्व – अरस्तू के अनुसार शिक्षा व्यक्ति के विकास का साधन है। राज्य व्यक्ति का अधिक विकसित रूप है और अधिक नैतिक है। वह लौकिक जीवन के लिए साध्य है। शिक्षा इस साध्य को प्राप्त करने का साधन है अतएव मीमांसा के सिद्धान्त में अरस्तू साधन को साध्य द्वारा नियन्त्रित कर उसका सही मार्गदर्शन कराना चाहते हैं। राज्य के ऊपर इसलिए समस्त शिक्षा देने का उत्तरदायित्व है।

(3) व्यावसायिक प्रशिक्षण का विरोध – अरस्तू ने व्यावसायिक प्रशिक्षण को अपनी शिक्षा योजना में सम्मिलित नहीं किया है। व्यवसाय, उद्योग-धन्धे तथा अन्य आर्थिक प्रकृति के कार्यों में लगे हुए लोगों को उसने नागरिकों में स्थान नहीं दिया है, अतः स्वाभाविक ही था कि वह व्यावसायिक प्रशिक्षण को अपनी शिक्षा योजना में स्थान न दे।

(4) शिक्षा के मूलभूत विषयों पर बल – अरस्तू ने उन विषयों का उल्लेख किया है जो शिक्षा के मूलभूत विषय होने चाहिए। पढ़ना, लिखना, शारीरिक प्रशिक्षण, संगीत तथा चित्रकला को उसने प्रमुख विषय माना है। ये धनोपार्जन, ज्ञान प्राप्ति तथा अनेक राजनीतिक कार्यों के लिए उपयोगी विषय हैं। शारीरिक प्रशिक्षण मुख्य रूप से साहस के गुण का विकास करता है। संगीत की शिक्षा को पाठ्यक्रम में स्थान इसलिए मिला है कि यह मनुष्य के अवकाश के क्षणों में मन के समुचित संस्कार करने का माध्यम है।

(5) संगीत पर विशिष्ट जोर – अरस्तू की शिक्षा योजना में संगीत पर विशिष्ट जोर दिया गया है। संगीत पर विचार प्रकट करते हुए उसने कहा है कि सामान्यतया संगीत की शिक्षा तीन प्रकार से उपयोगी मानी जा सकती है। प्रथम यह मनोरंजन एवं आराम के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। दूसरे, यह नैतिक प्रशिक्षण के माध्यम का कार्य कर सकती है और तीसरे, यह मस्तिष्क के संस्कार एवं परिष्कार का साधन हो सकती है। संगीत, हमारे सम्मुख सद्गुणों की प्रतिमा उपस्थित कर सकता है एवं हमें इनकी ओर आकर्षित कर सकता है। नवयुवकों के चरित्र पर नैतिक प्रभाव डालने का यह बड़ा कारगर साधन है।

(6) शिक्षा का मनोवैज्ञानिक आधार – अरस्तू ने अपने शिक्षा सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया है। उसने कहा है कि शिक्षा मानव विकास के स्वाभाविक क्रम के अनुरूप होनी चाहिए। जन्म के बाद लगभग सात वर्ष तक बच्चे की घर पर ही देखरेख हो तथा मुख्य रूप से इस बात का ध्यान रखें कि बच्चे दासों तथा अन्य अवांछनीय लोगों के सम्पर्क से पूर्णरूपेण बचे रहें क्योंकि इस उम्र में पड़े बुरे प्रभाव बड़े घातक होते हैं।

निष्कर्ष – अरस्तू की शिक्षा योजना में कतिपय दोष होते हुए भी यह सर्वथा महत्वहीन नहीं है। इसका सबसे बड़ा गुण यह है कि यह मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित है और मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास पर आधारित है। इसका दूसरा गुण यह है कि यह नागरिकों के चरित्र का निर्माण राज्य के स्वरूप के ढांचे में करता है। इसके परिणामस्वरूप, सिर्फ राज्य का स्थायित्व दृढ़ नहीं होता, बल्कि नागरिक राज्य के विकास में भी पूर्ण योगदान करते हैं। अरस्तू शरीर और मन की सभी शक्तियों का सन्तुलित विकास करना चाहता है। स्पार्टा की भांति केवल शारीरिक शिक्षा को अपना लक्ष्य नहीं बनाता है। राबर्ट यूलिच ने लिखा है : “अरस्तू की शिक्षा प्रणाली दार्शनिक और शैक्षणिक विचारों के सर्वाधिक मूल्यवान स्रोतों में से एक रूप में सदैव उपयोगी रही है।”

फिर भी बार्कर जैसे विद्वान का मानना है कि प्लेटो की शिक्षा व्यवस्था की तरह अरस्तू की शिक्षा व्यवस्था न तो पूर्ण ही है, न क्रमबद्ध ही, क्योंकि प्लेटो की तरह उसने गणित और दर्शन की शिक्षा का उल्लेख नहीं किया है।

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