अरस्तू : राजनीति विज्ञान का जनक

इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि पश्चिमी जगत में राजनीतिक विज्ञान अरस्तू से ही प्रारम्भ हुआ। यद्यपि अरस्तू के पूर्व प्लेटो ने राजनीति पर विचार किया था, किन्तु उसका सम्पूर्ण ज्ञान कल्पना पर आधारित है। वह अपने कल्पनालोक में ही खोया रहता है और वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं रखता। प्लेटो की पद्धति निगमनात्मक है और वह केवल इस बात का विचार करता है। कि आदर्श राज्य कैसा होना चाहिए, यथार्थ राजनीतिक स्थिति से उसे कोई मतलब नहीं है। ऐसी स्थिति में हम उसे कलाकार, कवि या दार्शनिक भी कह सकते हैं, विषय पर क्रमबद्ध रूप से विचार करने वाला वैज्ञानिक नहीं। इसके अतिरिक्त प्लेटो के द्वारा राजनीति विज्ञान को स्वतन्त्र विज्ञान का पद नहीं प्रदान किया गया, वह राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र का एक अंग मानता है। राजनीतिक विज्ञान को एक स्वतन्त्र विज्ञान का पद प्रदान करने का कार्य अरस्तू के द्वारा ही किया गया।  निम्नलिखित कारणों के आधार पर अरस्तू को राजनीतिक विज्ञान का जनक कहा जा सकता है-

 

1) विषय के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण

अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने के पूर्व अरस्तू के द्वारा अपने समय की सभी राजनीतिक संस्थाओं का पूर्ण अध्ययन किया गया है। उसके द्वारा क्रमबद्ध और वैज्ञानिक रूप में तथ्य एकत्रित किए गए हैं। ऐसा कहा जाता है कि पॉलिटिक्स की रचना के पूर्व अरस्तू ने 158 देशों के संविधानों का अध्ययन किया था। उसे यूनानी जगत की राजनीतिक संस्थाओं का ज्ञानकोश समझा जाता था। उसे इतिहास का अधिकारपूर्ण ज्ञान था और उसने अपने इस सम्पूर्ण ज्ञान के आधार पर राजनीति विज्ञान को नवीन दिशाएँ प्रदान कीं। उसका अध्ययन स्वयं द्वारा संग्रहित तथ्यों पर आधारित होने के कारण उसे प्रथम वैज्ञानिक विचारक कहा जाता है।

 

2) राजनीति विज्ञान को स्वतन्त्र विज्ञान का रूप प्रदान करना

प्लेटो के राजनीतिक विचारों में राजनीति और नीति एक-दूसरे में पूर्णतया मिश्रित हैं और राजनीति नीतिशास्त्र का एक उपविभाग बनकर रह गई है। प्लेटो ने अपने सिद्धान्तों के प्रतिपादन में राजनीति को उसका उचित महत्त्व प्रदान नहीं किया है और राजनीति का प्रतिपादन करते हुए भी उसकी दृष्टि नीति पर टिकी रही है।

अरस्तू ने राजनीति और नीति को एक-दूसरे से पृथक् करके राजनीति को एक स्वतन्त्र विज्ञान की स्थिति प्रदान की है और इस दृष्टि से राजनीति का विज्ञान सही रूप में अरस्तू से प्रारम्भ होता है। अरस्तू राजनीति विज्ञान को न केवल स्वतन्त्र विज्ञान का रूप वरन् सर्वोच्च विज्ञान की स्थिति प्रदान करता है।

 

3) यथार्थवादी विचारक

अरस्तू प्रथम विचारक है, जिसने राजनीति पर यथार्थवादी और व्यावहारिक दृष्टिकोण से विचार किया। उसका एक अपूर्व गुण संयम या सन्तुलन का तत्त्व है। उसने सदैव ही अतिशयोक्ति से बचते हुए मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया है।

अपनी यथार्थवादिता के कारण ही अरस्तू सम्पत्ति के साम्यवाद, पत्नियों के साम्यवाद या दार्शनिक राजा के शासन जैसी प्लेटो की अवधारणाओं का समर्थन नहीं करता वरन् उसका विचार है कि सम्पूर्ण जनता के हित में जनता पर केवल आवश्यक नियन्त्रण ही लगाए जाने चाहिए। दार्शनिक राजा के शासन के स्थान पर वह जनसाधारण की बुद्धि और विवेक में विश्वास करता है।

 

4) राज्य के पूर्ण सिद्धान्त का क्रमबद्ध निरूपण

अरस्तू प्रथम पश्चिमी विचारक है, जिसने क्रमबद्ध रूप में राज्य का पूर्ण सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। राज्य के जन्म और उसके विकास से लेकर उसके स्वरूप, संविधान की रचना, सरकार के निर्माण, नागरिकता की व्याख्या, कानून की सर्वोच्चता और क्रान्ति आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर उसने विस्तार से प्रकाश डाला है। ये सभी आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों के चिन्तन के विषय हैं और इन विषयों का इतना क्रमबद्ध विवेचन प्लेटो के दर्शन में भी नहीं मिलता।

यद्यपि अरस्तू का राज्य केवल एक नगर राज्य ही था, लेकिन फिर भी उसके द्वारा की गई कुछ विषयों की विवेचना प्रायः आधुनिकतम है। “व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी हैं” इस उक्ति की औपचारिक अभिव्यक्ति अरस्तू ने ही की और वह वाक्य राजनीति के इतिहास में सदा एवं स्वयंसिद्धि के रूप में स्वीकार कर लिया गया। राज्य की इतनी पूर्ण व्याख्या प्राचीन और मध्यकाल में शायद ही किसी ने की।

 

5) सरकार के अंगों का निरूपण

अरस्तू ने सरकार के तीन अंगों- नीति निर्धारक, प्रशासकीय और न्यायिक का निरूपण किया है। ये अंग यद्यपि आधुनिक अंग विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बिल्कुल अनुरूप नहीं है, पर बहुत कुछ उसके समान ही हैं।

अरस्तू की यह खोज आगे चलकर शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त तथा नियन्त्रण और सन्तुलन के सिद्धान्त की रूपरेखा बनी। अरस्तू ने प्रत्येक अंग के निर्माण, कार्यक्षेत्र और शक्ति का अलग-अलग वर्णन किया और बीज रूप में आधुनिक सरकार की आकृति अंकित की है। इसे अरस्तू की बहुत बड़ी दूरदर्शिता ही कही जानी चाहिए।

 

6) कानून की सर्वोच्चता का प्रतिपादन

अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता के बारे में एक सम्यक् विचार प्रस्तुत किया है। अरस्तू सर्वाधिक बुद्धिसम्पन्न व्यक्तियों के विवेक के स्थान पर परम्परागत नियमों और कानूनों की श्रेष्ठता में विश्वास करता है, जबकि प्लेटो सर्वोच्चतम व्यक्ति के शासन में विश्वास करता है, अरस्तू का विश्वास, विधि के शासन में है। कानून की सर्वोच्चता तथा संवैधानिक शासन की वांछनीयता में उनका विश्वास उसकी ऐसी धारणाएँ हैं, जिनके आधार पर उसे ‘संविधानवाद का जनक’ कहा जाता है।

अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता के विषय में जो विचार व्यक्त किए, बोदाँ, ग्रोशियस, बेन्थम, हॉब्स, ऑस्टिन और लॉस्की ने उन्हें अपनाकर ही वैधानिक सम्प्रभुता की व्याख्या की है। सम्प्रभुता अरस्तू की बहुत अधिक ऋणी है।

 

7) राजनीतिक संस्थाओं को आर्थिक आधार प्रदान करना

अरस्तू राजनीतिक संस्थाओं को आर्थिक आधार प्रदान करने वाला प्रथम विचारक है। उसने इन मूलभूत तथ्यों का प्रतिपादन किया कि सम्पत्ति का लक्ष्य और वितरण शासन व्यवस्था के रूप को निश्चित करने में निर्णयकारी तत्त्व होता है, व्यक्तियों का व्यवसाय उनकी राजनीतिक योग्यता और प्रवृत्ति को प्रभावित करता है और क्रान्तियों का मूल कारण सम्पन्न और निर्धन वर्ग के बीच संघर्ष होता है।

अर्थव्यवस्था के अनेक पक्षों का विस्तृत अध्ययन करते हुए उसने निष्कर्ष निकाला कि यदि सम्पत्ति पर स्वामित्व व्यक्तिगत रहे, लेकिन उसका उपयोग सार्वजनिक हो तो राज्य की समस्याएँ सरलता से हल हो सकती हैं। अरस्तू ने यह सिद्ध किया कि राज्य में जब तक सुदृढ़ एवं विशाल मध्यम वर्ग नहीं बन जाता तब तक राज्य आत्मनिर्भर नहीं हो सकता। यदि हम उपरोक्त सभी तत्त्वों पर सामूहिक रूप से विचार करें तो पाएँगे कि अरस्तू को राजनीति विज्ञान का जनक कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। मैक्सी ने सत्य रूप में ही अरस्तू को प्रथम राजनीति वैज्ञानिक कहा है।

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