अरस्तू के संविधानों का वर्गीकरण

“वे संविधान, जो पूर्ण न्याय की दृष्टि से सामान्य हित का ध्यान रखते हैं, शुद्ध संविधान हैं। वे संविधान, जो केवल शासकों के व्यक्तिगत हित को ध्यान में रखते हैं, विकृत संविधान हैं या शुद्ध संविधान के विकृत रूप हैं।”—अरस्तू

अरस्तू द्वारा संविधानों का वर्गीकरण राजनीति विज्ञान की कोई मौलिक देन नहीं है। उसने प्लेटो द्वारा ‘स्टेट्समैन’ में किए गए राज्यों के वर्गीकरण को ही अपनाया है। ‘पॉलिटिक्स’ के तीसरे भाग में संविधानों का वर्गीकरण किया गया है तथा पुस्तक के चार से छः भाग में विभिन्न संविधानों का विस्तार से वर्णन किया गया है। अरस्तू की संविधान विषयक विवेचना 158 भिन्न-भिन्न संविधानों के अध्ययन पर आधारित है-

 

संविधान की परिभाषा

अरस्तू ने संविधान की व्याख्या दो रूपों में की है : सर्वप्रथम, वह कहता है- राज्य के विभिन्न मनुष्यों के जीवन-निर्वाह के विशेष नियमों का नाम ही संविधान है। इस प्रकार संविधान एक जीवन-पद्धति है, जीवन-निर्वाह का एक विशेष मार्ग है।

पॉलिटिक्स की चतुर्थ पुस्तक में वह संविधान की परिभाषा करते हुए लिखता है—“यह (विधान) राज्य में विभिन्न पदों का संगठन है जिससे उनकी वितरण विधि को निश्चित किया जाता है, सार्वभौम सत्ता का निर्धारण किया जाता है एवं समुदाय तथा उसके समस्त सदस्यों के द्वारा अंगीकार लक्ष्य की प्रकृति का निर्णय किया जाता है।”

जहां पहली परिभाषा में अरस्तू संविधान के नैतिक रूप की ओर ध्यान आकर्षित करता है वहां दूसरी परिभाषा में संविधान के राजनीतिक स्वरूप की ओर संकेत करता है। संविधान केवल जीवन-निर्वाह की पद्धति ही नहीं, राज्य के प्रशासन की व्यवस्था का भी नाम है। संविधान द्वारा शासन के विभिन्न अंगों का वर्णन किया जाता है, उन अंगों का स्वरूप निर्धारित किया जाता है, तथा उनका परस्पर सम्बन्ध सुनिश्चित किया जाता है।

संविधान सम्बन्धी अरस्तू के विचारों के विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि अरस्तू राज्य और संविधान में स्पष्ट अन्तर देखता है। वास्तव में अरस्तू से पूर्व संविधान और राज्य को पृथक्-पृथक् वर्णित नहीं किया गया था, परन्तु जहां एक ओर अरस्तू राज्य और संविधान के बीच अन्तर स्पष्ट करता है वहां दूसरी ओर स्वयं ही वह कहता है कि संविधान द्वारा ही राज्य का स्वरूप निर्धारित होता है। संविधान राज्य का प्रतिरूप है। संविधान में परिवर्तन का अर्थ है राज्य में परिवर्तन। उदाहरण के लिए, यदि प्रजातन्त्रात्मक विधान में परिवर्तन करके उसे कुलीनतन्त्रात्मक विधान बना दिया जाए तो इसका अनिवार्य परिणाम होगा, प्रजातन्त्र राज्य का विनाश एवं कुलीनतन्त्र का उदय । इस प्रकार अरस्तू संविधान के वर्गीकरण को ही राज्य का वर्गीकरण कहता है। वास्तव में यहां अरस्तू में अन्तर्विरोध दृष्टिगोचर होता है।

 

संविधानों का वर्गीकरण

संविधान का सर्वप्रथम वैज्ञानिक वर्गीकरण अरस्तू के द्वारा किया गया है। अरस्तू ने अपना यह वर्गीकरण दो आधारों पर प्रस्तुत किया है—

(i) संख्या (Number) के आधार पर: संख्या के आधार पर अर्थात् प्रभुत्व शक्ति का प्रयोग कितने व्यक्तियों द्वारा किया जाता है।

(ii) लक्ष्य या उद्देश्य (Purpose) के आधार पर: इसका तात्पर्य है शासन करने वाले व्यक्तियों का उद्देश्य सार्वजनिक हित है या स्वार्थ सिद्धि।

अरस्तू ने पहले आधार पर एक व्यक्ति का शासन अल्पसंख्यकों का शासन और बहुसंख्यकों का शासन इस प्रकार के तीन भेद किये हैं और दूसरे आधार पर अरस्तू ने इन्हीं तीन शासन व्यवस्थाओं के दो रूपी स्वाभाविक और विकृत का निरूपण किया है। अरस्तू के अनुसार शासन का वह रूप स्वाभाविक है। जिसमें शासन सामान्य हित के आदर्श के आधार पर कार्य करता है और विकृत रूप वह है जिसमें शासक वर्ग केवल अपने हितों को दृष्टि में रखता है।

अरस्तू द्वारा संविधानों के वर्गीकरण को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है –

प्रथम आधार  ( संख्या ) द्वितीय आधार ( नैतिक आधार )
शासन करने वाले व्यक्तियों की संख्या सर्वोच्च सत्ता के संचालन का उद्देश्य
स्वाभाविक रूप विकृत रूप
एक व्यक्ति राजतंत्र निरंकुशतंत्र
कुछ व्यक्ति कुलीनतंत्र वर्गतंत्र या धनिकतंत्र
अनेक व्यक्ति सर्व प्रजातंत्र भीड़तंत्र या प्रजातंत्र

 

(1) राजतन्त्र (Monarchy): अरस्तू के अनुसार राजतन्त्र सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली हैं, इसमें किसी भी राज्य का शासन एक व्यक्ति के हाथ में होता है। इसमें राजा का लक्ष्य प्रजा की सामान्य भलाई होता है, यह आदर्श व्यवस्था है, इसमें शासक को सब सद्गुणों से युक्त होना चाहिए। यह शासन प्रणाली सर्वोत्तम आदर्श होने पर भी क्रियात्मक नहीं है क्योंकि ऐसा सर्वगुण सम्पन्न शासक मिलना दुर्लभ हैं और यदि वह मिल जाय तो भी यह आवश्यक नहीं कि उसका उत्तराधिकारी भी इसी प्रकार का गुण सम्पन्न होगा। अतः राजतन्त्र- विकृत होकर निरंकुशतन्त्र (तानाशाही) में परिणत हो जाता है।

(2) निरंकुशतन्त्र (Tyranny ): अरस्तू के अनुसार निरंकुशतन्त्र राजतन्त्र का वह रूप है जिसमें शासक शासितों के ही हितों की उपेक्षा कर केवल अपने हित में शासन करता है। इस शासन की कई विशेषताएं हैं: यह राजतन्त्र का विकृत रूप है, यह एक प्रकार की तानाशाही है, यह धूर्तता और धोखे द्वारा कानून की चिन्ता न करते हुए स्वहित पर आधारित होता है।

(3) कुलीनतन्त्र (Aristocracy): जिस राज्य में शासन सत्ता कुछ व्यक्तियों के हाथ में हो तथा जहां शासन सत्ता का प्रयोग विधि अथवा कानून के अनुसार होता हो उसे कुलीनतन्त्र कहा जाता है। अरस्तू की धारणा है कि केवल यहीं ऐसा शासन विधान है जिसमें अच्छे नागरिक एवं अच्छे व्यक्ति के गुणों में पूर्णरूपेण समानता होती है।

अरस्तू के दृष्टिकोण से कुलीनतन्त्र एक प्रकार से लोकतन्त्र और धनिकतन्त्र के तत्वों के मिश्रण से निर्मित विधान है। इसके निर्माण के लिए तीन तत्वों- स्वतन्त्र जन्म, सम्पत्ति और योग्यता का मिश्रित होना अनिवार्य है। अरस्तू के अनुसार कुलीनतन्त्र में कानून की समुचित उपस्थिति रहती है। कुलीनतन्त्र भी, राजतन्त्र की भांति बुद्धि, गुण तथा संस्कृति द्वारा संचालित कानूनप्रिय शासन प्रणाली है। कुलीनतन्त्र वंशानुगत भी हो सकता है तथा आयु के अनुसार भी। अरस्तू के आदर्श राज्य में आयु पर आधारित कुलीनतन्त्र को ही अपनाया गया है जिसके अनुसार प्रौढ़ व्यक्तियों को ही शासन संचालन का अधिकार दिया गया है।

(4) धनिक वर्ग तन्त्र (Oligarchy): अरस्तू के अनुसार “धनिकतन्त्र ऐसा शासन विधान है जिसमें सम्पन्न एवं कुलीन लोग शासन संचालन करते हैं एवं वे अल्पमत में होते हैं।” इस परिभाषा के आधार पर धनिकतन्त्र में दो विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं प्रथम, इसमें सत्ता सम्पत्तिशाली वर्ग के हाथों में होती है, दूसरा, इन सम्पत्ति स्वामियों की संख्या अल्पमत में होती है।

अरस्तू के अनुसार धनिकतन्त्र का सबसे बड़ा दोष आपसी फूट तथा ईर्ष्या है। इनके प्रत्येक कार्य का आधार व्यक्तिगत लाभ है। बाह्य निर्धन वर्ग धनिकतन्त्र का सबसे बड़ा शत्रु है जो इसके विनाश के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है। अरस्तू धनिक वर्गतन्त्र को सर्वथा अस्थायी और पूर्णतया त्यागने योग्य व घृणित मानता है।

(5) सर्वप्रजातन्त्र (Polity): पॉलिटी या सर्वप्रजातन्त्र का अर्थ सारी जनता का तथा सारी जनता के हित के लिए किया जाने वाला शासन है।

हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अरस्तू मध्यममानी दार्शनिक था, उसे अतिवादिता पसन्द नहीं थी। अतः राजतन्त्र और ‘कुलीनतन्त्र’ की अप्राप्यता को देखते हुए उसे सर्वप्रजातन्त्र अथवा ‘पालिटी ही सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली जान पड़ी। उसका स्वर्णिम मध्यम मार्ग (Golden mean) उसे एक ऐसे संविधान को स्वीकार कराना चाहता है जिसमें न तो निरंकुशतन्त्र और न धनिकतन्त्र के दोष हो और न ही सम्पूर्ण जनता की अराजकता। यह मध्य मार्ग ‘सर्वप्रजातन्त्र’ (Polity) ही है।

(6) प्रजातन्त्र या भीतन्त्र (Democracy): प्लेटो की भांति अरस्तु भी प्रजातन्त्र का आलोचक है, किन्तु वह इसके कुछ गुणों को भी स्वीकार करता है। अरस्तू के मतानुसार प्रजातन्त्र का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें निरपेक्ष समानता के तत्व पर बहुत बल दिया जाता है और सब नागरिक विभिन्न प्रकार की योग्यताओं का विचार न करते हुए समान माने जाते हैं; धनी, निर्धन, अनपढ़, पढ़े-लिखे, विद्वान और मूर्ख बराबर समझे जाते हैं। यह स्वतन्त्रता के आधार पर सब नागरिकों को समान अधिकार देता है, किन्तु अधिकारों की यह समानता और स्वतन्त्रता शीघ्र ही नियन्त्रण के अभाव में अराजकता में परिणत हो जाती है, नागरिक जीवन को असम्भव बना देती है।

 

अरस्तू के संविधानों के वर्गीकरण की आलोचना

अरस्तू के वर्गीकरण की कई आधारों पर आलोचना की जाती है-

(1) यह सरकारों का वर्गीकरण, राज्यों (संविधानों) का नहीं: अरस्तू के वर्गीकरण की आलोचना करते हुए गार्नर ने इस बात पर बल दिया है कि अरस्तू राज्य और सरकार में भेद नहीं कर पाता, फलतः उसके द्वारा किया गया वर्गीकरण राज्यों का वर्गीकरण न होकर सरकारों का वर्गीकरण है। परन्तु यह आलोचना उचित नहीं है क्योंकि राज्य तथा सरकार का यह भेद आधुनिक युग की देन है।

ग्रीक काल में तो राज्य और सरकार में तो अन्तर किया ही नहीं जा सकता था और अरस्तू का अपने समय में प्रचलित धारा से प्रभावित होना नितान्त स्वाभाविक था। इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में भी राज्यों का वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक वर्गीकरण सरकार के आधार पर ही किया जा सकता है। अरस्तू के बाद विभिन्न विद्वानों द्वारा किए गए वर्गीकरण किसी न किसी रूप में सरकार से सम्बन्धित हैं।

(2) मौलिकता का अभाव: आलोचकों के अनुसार अरस्तू के संविधानों के वर्गीकरण में मौलिकता का अभाव है। उसने इस सन्दर्भ में अपने गुरु प्लेटो की नकल की है। केवल अन्तर इतना ही है कि प्लेटो के संवैधानिक प्रजातन्त्र के स्थान पर उसने पॉलिटी और प्रजातन्त्र के स्थान पर भीड़तन्त्र का नाम रखा है। प्लेटो ने वर्गीकरण का आधार उत्तमता और संख्या को बनाया है तो अरस्तू ने उसमें आर्थिक तत्व और जोड़ दिया है।

(3) संविधान, राज्य और शासन शब्दों में अन्तर का अभाव: अरस्तू के वर्गीकरण में संविधान, राज्य और शासन शब्दों के रूप में प्रयोग किया गया है। अरस्तू इन शब्दों के भेद को स्पष्ट नहीं करता। आधुनिक समय में इन शब्दों में स्पष्ट भेद किया जाता है। अतः आलोचकों द्वारा इसकी आलोचना की जाती है।

(4) अवैज्ञानिक तथा संख्यावाचक वर्गीकरण: अरस्तू का वर्गीकरण किसी वैज्ञानिक आधार पर नहीं हुआ है। गार्नर ने इसी कमी का संकेत करते हुए लिखा है कि सरकारों के वर्गीकरण के रूप में यह असंगत है, क्योंकि यह ऐसे किसी सिद्धान्त पर आधारित नहीं है, जिसके अनुसार सरकारों में परस्पर आधारभूत विशेषताओं तथा संगठन के रूप में सम्बन्धित भिन्नता स्थापित की जा सके। वॉन मॉहल ने भी इसी कमी की तरह ध्यान दिलाते हुए लिखा है कि, ‘जिस सिद्धान्त पर यह आधारित है उसका स्वरूप राज्य के गठन से सम्बन्धित न होकर गणित से सम्बन्धित है तथा वह गुण-विषयक न होकर संख्या विषयक है।’

किन्तु इस प्रकार की आलोचना युक्ति संगत नहीं है। शासन करने वाले व्यक्तियों की संख्या के आधार पर ही राजनीतिक चेतना का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त अरस्तू के वर्गीकरण में संख्या विषयक आधार से अधिक महत्वपूर्ण नैतिक आधार है जिसके अन्तर्गत शासन व्यवस्था के स्वाभाविक और विकृत रूपों का वर्णन किया गया है। बर्गेस ने ठीक ही कहा है, “अरस्तू का वर्गीकरण नैतिक और आध्यात्मिक है, संख्यावाचक नहीं।”

(5) प्रजातन्त्र को उचित स्थान नहीं दिया: अरस्तू ने अपने वर्गीकरण में प्रजातन्त्र को उचित स्थान नहीं दिया है। अरस्तू प्रजातन्त्र को भीड़तन्त्र का पर्यायवाची मानता है, लेकिन वर्तमान समय में प्रजातन्त्र को सर्वश्रेष्ठ शासन पद्धति समझा जाता है। अतः प्रजातन्त्र के सम्बन्ध में अरस्तू के विचार को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

(6) अरस्तू का वर्गीकरण आधुनिक राज्यों पर खरा नहीं उतरता: आलोचकों का यह भी आरोप है कि यह वर्गीकरण आधुनिक राज्यों पर खरा नहीं उतरता है। उनका कहना है कि अरस्तू ने अपने समय के नगर राज्यों को ध्यान में रखकर ही यह वर्गीकरण किया जो आज के राष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय तथा विशाल राज्यों पर लागू नहीं होता।

इस आधार पर अरस्तू के वर्गीकरण की आलोचना करना उचित नहीं लगता, क्योंकि अरस्तू ने जब अपना वर्गीकरण किया था, उस समय से राज्यों के रूप इतने बदल गये हैं कि उस समय किया हुआ वर्गीकरण आजकल के राज्यों के प्रकारों के लिए उपयुक्त हो यह आवश्यक नहीं। वैसे यह बात तो हर वर्गीकरण पर जो उसके बाद के विद्वानों द्वारा किये गये हैं, लागू की जा सकती है। अभी तक ऐसा वर्गीकरण तो शासद सम्भव नहीं हुआ है जो आने वाली हर राजनीतिक प्रणाली पर भी समान रूप से लागू रह सके। राजनीतिशास्त्र में वर्गीकरणों का बाहुल्य ही केवल इस कारण है कि राजनीतिक परिस्थितियां इतनी तेजी से बदलती हैं कि हर वर्गीकरण कुछ समय में पुराना पड़ जाता है। अतः यह आलोचना विशेष वजन नहीं रखती हुई कही जा सकती है।

(7) परिवर्तन चक्र त्रुटिपूर्ण है: अरस्तू के राज्यों के वर्गीकरण के साथ-साथ शासन व्यवस्थाओं का परिवर्तन चक्र त्रुटिपूर्ण है। वस्तुतः राज्यों या शासन व्यवस्थाओं में वैसे ही नियमित या व्यवस्थित परिवर्तन नहीं होते हैं जैसे कि अरस्तू द्वारा बताए गए हैं।

(8) राजतन्त्र का काल्पनिक चित्रण: अरस्तू मेसेडोनिया के शासक से बहुत अधिक प्रभावित था, इसीलिए उसने कल्पना के घोड़े दौड़ाकर राजतन्त्र को श्रेष्ठतम शासन विधान घोषित किया है। अतः वह प्लेटो जैसा कल्पना लोक में उड़ने वाला दार्शनिक बन जाता है।

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