अरस्तू का न्याय सिद्धांत

अरस्तू का न्याय सिद्धांत उसके महान गुरु प्लेटो के न्याय सिद्धांत का ही विस्तार रूप है। अरस्तू के महान् विद्वान गुरु प्लेटो ने ‘न्याय’ की अवधारणा को राज्य का जीवन और आधार माना था। अपने गुरु की भांति अरस्तू भी न्याय को राज्य का मूल आधार तत्व स्वीकार करता है और कहता है कि बिना न्याय के कोई भी राज्य व्यवस्था अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती। इसी अवधारणा के आधार पर अरस्तू अपने न्याय सिद्धान्त की विवेचना करता है और प्लेटो का न्याय सिद्धान्त उसके मार्ग दर्शन का कार्य करता है। किन्तु अरस्तू लकीर का फकीर भी नहीं था; न्याय की अवधारणा पर विचार करते समय वह नये सन्दर्भों की खोज करता है, जिससे अरस्तू का न्याय सिद्धान्त प्लेटो के न्याय सिद्धान्त से भिन्न रूप में हमारे सामने आता है। जहां प्लेटो के अनुसार अपने स्वभाव के अनुरूप कार्य करना न्याय है, अरस्तू के अनुसार न्याय सद्गुण का व्यावहारिक रूप है।

अरस्तू के अनुसार न्याय से अभिप्राय

अरस्तू न्याय को समस्त सदगुणों का समूह मानता है। न्याय सद्गुण का व्यावहारिक रूप है। एक अर्थ में यह सद्गुण (Virtue) से भी श्रेष्ठ होता है। यह सदगुण का व्यावहारिक प्रयोग (It is virtue in actions है। दूसरे शब्दों में, जब सद्गुण कार्य रूप में परिणत होता है, तो वह न्याय का रूप ले लेता है। उदाहरणार्थ विवेकी होना सद्गुण है, परन्तु दूसरों के साथ विवेकपूर्ण आचरण करना न्याय है। अरस्तू ने न्याय को अन्य सभी सद्गुणों से श्रेष्ठतर स्थान प्रदान किया है क्योंकि उसने कहा है कि अन्य सभी सद्गुण न्याय का अनुसरण अनिवार्य रूप से करते हैं। अरस्तू के मत में, न्याय एक सामाजिक सद्गुण (Social Virtue) है जिसमें अन्य सारे सद्गुण समा जाते हैं। अरस्तू ने राजनीति के अन्तर्गत न्याय को ही सर्वोत्तम तत्व माना है। उसके शब्दों में, “राजनीति के क्षेत्र में जो सर्वोत्तम है वह न्याय है तथा न्याय उन बातों में निहित है जिनसे सार्वजनिक हित की अभिवृद्धि होती है।” दूसरे शब्दों में, अरस्तू ने न्याय को राजनीतिक क्षेत्र का सर्वोत्तम तत्व बतलाकर राजनीति के उत्कृष्ट स्वरूप को स्पष्ट किया है।

न्याय का वर्गीकरण

अरस्तू ने अपने ग्रन्थ ‘एथिक्स (Ethics) में न्याय का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए उसके दो मुख्य विभाजन किए हैं—

1. सामान्य न्याय (General Justice)
2. विशिष्ट न्याय (Particular Justice)

1. सामान्य न्याय : अरस्तू के अनुसार सामान्य न्याय ‘सम्पूर्ण अच्छाई’ का नाम है। इसमें सब सद्गुण (Virtues) और सम्पूर्ण साधुता (Righteousness) का समावेश है। इसकी व्याख्या करते हुए ‘एथिक्स’ की पांचवीं पुस्तक में अरस्तू ने लिखा है, “सामान्य न्याय सम्पूर्ण अच्छाई है। यह पूर्णरूपेण सम्पूर्ण अच्छाई है क्योंकि यह सम्पूर्ण अच्छाई का अभ्यास है, सम्पूर्ण इस अर्थ में कि इससे युक्त व्यक्ति अपनी अच्छाई का अभ्यास न केवल अपने लिए करता है, बल्कि अपने पड़ोसियों के साथ भी वह इसका प्रयोग करता है।”

दूसरे शब्दों में, अच्छाई के सब कामों, सभी सद्गुणों (Virtues) तथा समग्र साधुता (Righteousness) को ही अरस्तू सामान्य न्याय मानता है।

2. विशिष्ट न्याय : न्याय का दूसरा वर्ग विशिष्ट न्याय है। यह सामान्य न्याय का ही एक अंग है। विशिष्ट न्याय ‘सम्पूर्ण अच्छाई’ (Complete Goodness) का ही एक पहलू है जिसकी, उपस्थिति मनुष्य को अन्य लोगों के साथ उचित एवं समान व्यवहार करने की प्रेरणा देती है।

‘विशिष्ट न्याय’ एवं ‘सामान्य न्याय’ में तात्विक आधार पर कोई अन्तर नहीं है। इनके अन्तर का प्रमुख आधार इनका क्षेत्र (Scope) है। जहां सामान्य न्याय का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है, मनुष्य की सम्पूर्ण अच्छाई को सन्निहित करने वाला है, वहां विशिष्ट न्याय का क्षेत्र नितान्त सीमित है। यह केवल मात्र अच्छाई के उस अंश का द्योतक है जिसकी उपस्थिति होने से व्यक्ति दूसरों के साथ यथोचित व्यवहार करता है। सम्भवतः अरस्तू ने सामाजिक व्यवहार संहिता के अर्थ में विशिष्ट न्याय का प्रयोग किया है। इस विशिष्ट न्याय शब्द का प्रमुख रूप से सम्बन्ध, व्यक्ति के व्यवहार से होने के कारण कानून से है। विशिष्ट न्याय से युक्त व्यक्ति वह है जो श्रेष्ठ कानून का समुचित पालन करता है और इस प्रकार समाज के सन्दर्भ में अपने लिए उचित मात्रा से अधिक सुख-सुविधाओं के लिए कामना नहीं करता। इसके विपरीत, जो व्यक्ति अपने लिए उचित मात्रा से अधिक सुख-सुविधाओं की कामना करता है वह ‘विशिष्ट न्याय’ के गुण से युक्त नहीं है और उसका जीवन न्यायानुकूल नहीं है।

अरस्तू ने ‘विशिष्ट न्याय’ को दो वर्गों में बांटा है—

(क) वितरणात्मक न्याय (Distributive Justice), एवं

(ख) संशोधनात्मक न्याय ( Rectificatory Justice)

(क) वितरणात्मक न्याय — वितरणात्मक न्याय से अभिप्राय है कि राज्य अपने नागरिकों में राजनीतिक पदों, सम्मानों तथा अन्य लाभों और पुरस्कारों का बंटवारा या वितरण न्यायपूर्ण रीति से करें। एथेन्स जैसे यूनानी नगर राज्यों में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र होने के कारण न केवल राजकीय पद और सम्मान नागरिकों में वितरित किए जाते थे, किन्तु असेम्बली तथा न्यायालयों में भाग लेने के लिए निश्चित धनराशि, कई बार द्रव्य की तथा अन्न की राशि भी नागरिकों में वितरित की जाती थी। इसका विषम वितरण अर्थात् किसी वर्ग विशेष को ही राजकीय पदों का दिया जाना राज्य में गम्भीर दोष उत्पन्न कर सकता था। अतः अरस्तू इन्हें ‘आनुपातिक समानता’ (Propartionate Equality) के आधार पर वितरित करना चाहता है। और इसी को वितरणात्मक न्याय कहता है।

अरस्तू के अनुसार सभी नागरिकों को राजकीय पद समान रूप से दिया जाना न्यायपूर्ण नहीं है। वह प्रत्येक व्यक्ति को ये पद और पुरस्कार उस मात्रा के अनुपात में देना चाहता है जिस मात्रा में उसने अपनी योग्यता और धन से राज्य को लाभ पहुंचाया हो।

(ख) संशोधनात्मक न्याय – संशोधनात्मक न्याय वह है जिसके आधार पर राज्य अपने नागरिकों के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण करता है। यह राज्य के विभिन्न सदस्यों के पारस्परिक व्यवहार में उत्पन्न होने वाले दोषों को ठीक करके उनका संशोधन करता है। ये व्यवहार ऐच्छिक और अनैच्छिक रूप से दो प्रकार के होते हैं : ऐच्छिक व्यवहारों का उदाहरण विभिन्न प्रकार के समझौते तथा संविदाएं (Contracts) हैं। जब कोई पक्ष संविदा की कोई शर्त तोड़ता है तो राज्य दूसरे पक्ष के साथ इस प्रकार होने वाले अन्याय का अपने न्यायालयों द्वारा संशोधन करता है। अनैच्छिक व्यवहारों में सहमति का कोई तत्व नहीं होता, इनमें जब एक नागरिक दूसरे को हानि पहुंचाता है तो राज्य हानि उठाने वाले नागरिक की भरपाई करवा के उसके साथ न्याय करता है।

इस न्याय को व्यवहार में लाते समय व्यक्तियों में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। उनके व्यक्तिगत गुणों अथवा उनके द्वारा राज्य के लिए की गई सेवाओं को इस न्याय के वितरण के समय किंचित मात्र भी ध्यान में नहीं रखा जाता। उनके अपराध की गुरुता अथवा लघुता को ध्यान में रखकर ही उनके लिए समुचित दण्ड की व्यवस्था की जाती है।

अरस्तू के न्याय सिद्धान्त की आलोचना

अरस्तू के न्याय सिद्धान्त की निम्नलिखित तर्कों के आधार पर आलोचना की जाती है

1. अरस्तू की न्याय अवधारणा नैतिक अधिक है और वैधानिक कम — अरस्तू ने न्याय का अर्थ सदाचार से लिया है। एक व्यक्ति कितना सदगुणी और सदाचारी है, इसी के आधार पर राज्य का उसके प्रति व्यवहार और समाज में इसका स्थान निर्धारित होता है। अतः अरस्तू की न्याय की परिभाषा नैतिक अधिक और वैधानिक कम है।

2. वितरणात्मक न्याय का व्यवहार में क्रियान्वयन असम्भव – अरस्तू के वितरणात्मक न्याय की धारणा को व्यवहार में अपनाना कठिन है क्योंकि आज जनसंख्या की तुलना में राजकीय पदों और पुरस्कारों की संख्या कम है। राज्य चाहते हुए भी सभी नागरिकों को उनकी योग्यता और योगदान के अनुपात में पद और पुरस्कार प्रदान नहीं कर सकता।

3. योग्यता का निर्धारण कठिन – अरस्तू योग्यता को वितरणात्मक न्याय का आधार घोषित करता है, किन्तु योग्यता की सर्वमान्य परिभाषा करना कठिन है। जहां आधुनिक युग में योग्यता का अर्थ तीव्र बुद्धि है वहां अरस्तू ने योग्यता का अर्थ सद्गुण या नैतिक चरित्र से लगाया है।

4. न्याय धनिकों का विशेषाधिकार — अरस्तू का न्याय, खासतौर से वितरणात्मक न्याय धनिकों को विशेषाधिकार प्रदान करता है। अरस्तू विभिन्न रूपों में की गई राजकीय सेवा, कुलीनता और धन प्रदान करने की शक्ति को योग्यता मान लेता है तथा उसी के अनुपात में राजकीय पदों एवं पुरस्कारों के वितरण की व्यवस्था करता है। स्पष्ट है कि ये सब ऐसी योग्यता है जो निर्धन वर्ग को प्राप्त नहीं है, अतः राज्य के पद और पुरस्कार भी उसके लिए प्राप्य नहीं है। इस तरह अरस्तू के न्याय सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में धनी व्यक्ति ही न्याय प्राप्त करने की स्थिति में है और निर्धन हमेशा उससे वंचित रहते हैं।

निष्कर्ष- कुछ आलोचनाओं के बावजूद अरस्तू के न्याय सिद्धान्त के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। एक अच्छे और लोक कल्याणकारी राज्य के लिए यह आवश्यक है कि वह सामाजिक दृष्टि से सन्तुलन व्यवस्था स्थापित करने के लिए अपने पदों और पुरस्कारों का अपने नागरिकों में न्यायोचित वितरण करे ताकि, वे सन्तुष्ट होकर राज्य के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सकें और उसे स्थायित्व व एकता प्रदान कर सकें। इस दृष्टि से अरस्तू का वितरणात्मक न्याय वर्तमान समय में भी अत्यधिक महत्व रखता है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *