अरस्तु की दासता का सिद्धांत

            CONTENT:

  • दास कौन है ?,
  • दासता के पक्ष में अरस्तू के विचार,
  • दासता के प्रकार,
  • दास प्रथा में सुधार के लिए सूत्र ,
  • आलोचना

अरस्तु के अनुसार दास प्रथा नगर राज्यों के संपूर्ण विकास के लिए अति आवश्यक है। दासों का तत्कालीन यूनानी समाज में एक महत्वपूर्ण योगदान है। दासों को तत्कालीन यूनानी समाज का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता था, जो कुलीन वर्ग के लिए जी तोड़ परिश्रम करता था। दासों की विशाल सेना को राष्ट्रीय संपत्ति माना जाता था। इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध सोफिस्ट विद्वानों ने सर्वप्रथम यूनान में आवाज उठायी। सोफिस्टों ने कहा कि “मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है।” सभी मानव समान होते हैं और इसलिए समाज से दास प्रथा का बहिष्कार किया जाना चाहिए। लेकिन अरस्तु जैसे विद्वानों ने सोफिस्ट विचारको का विरोध करते हुए इसे ग्रीक सभ्यता की उन्नति के लिए अति आवश्यक बताया। उसने इसे स्वाभाविक, उपयोगी व समयानुकूल बताकर उचित ठहराया।

दास कौन है ?

अरस्तु ने अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स में दासता संबंधी विचार प्रकट करते हुए दासों को पारिवारिक संपत्ति का एक हिस्सा माना है। दास कौन है, इस संबंध में अरस्तु का कहना है कि “जो व्यक्ति प्रकृति से अपना नहीं अपितु दूसरे का है, लेकिन फिर भी आदमी है, वह प्रकृति से दास है।” अरस्तु का मानना है कि दास अपनी प्रकृति से एक संपत्ति है और एक संपत्ति के रूप में होने के कारण दास का स्वयं पर अपना कोई अधिकार भी नहीं होता है। उनका तर्क है कि कोई भी संपत्ति स्वयं की स्वामी नहीं होती, अपितु प्रत्येक संपत्ति को सदैव ही किसी स्वामी की आवश्यकता होती है। वस्तुतः स्वामी के अभाव में संपत्ति से अलग अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। किंतु इससे भिन्न स्थिति स्वामी की होती है। स्वामी की संपत्ति पर पूर्ण अधिकार होता है। इस प्रकार संपत्ति का अस्तित्व ही स्वामी के लिए होता है और एक संपत्ति के रूप में दास का अस्तित्व भी मात्र स्वामी के लिए होता है।

अरस्तु ने दास को एक सजीव संपत्ति मानते हुए उसे पशुओं से श्रेष्ट बताया है। दास स्वामी के विवेक व दर्शन की थोड़ी सी झलक पा लेने की समझदारी रखता है। इसलिए दास के साथ सौम्यता का व्यवहार किया जाना चाहिए।

दासता के पक्ष में अरस्तू के विचार

अरस्तु ने दास प्रथा का समर्थन निम्न आधारों पर किया है-

1) दासता स्वाभाविक है – अरस्तु के अनुसार दास प्रकृति की देन है। अरस्तु का कहना है कि कुछ व्यक्ति शासन करने के लिए पैदा होते हैं, जबकि कुछ शासित होने के लिए। प्रकृति जिन व्यक्तियों को विवेक देती है, वह शासक होते हैं और जिनको केवल शारीरिक शक्ति देती है और जिनमें दूसरों के विवेक को समझने का गुण होता है वह शासित होते हैं। अरस्तु प्रकृति के नियम के अनुसार मानता है कि श्रेष्ठ सदा निकृष्ट पर शासन करता है। यह प्रकृति का नियम है कि श्रेष्ठतर निम्नतर प्रशासन करे। अतः दासता प्रकृति के नियमों पर आधारित होने के कारण स्वाभाविक है।

2) दासता स्वामी के लिए लाभदायक है – अरस्तु का मानना है कि स्वामी का कार्यक्षेत्र नगर राज्य की राजनीति है। नगर के राज्य कार्य में भाग लेकर स्वामी अपना नैतिक उत्थान करता है। इस कार्य के लिए स्वामी को अवकाश चाहिए। यह अवकाश तभी संभव है जब दास उसके लिए घर के कार्य को करें। अरस्तु के अनुसार अवकाश का अर्थ उन कार्यों से है जिनको संपादित कर स्वामी अपने नागरिक कर्त्तव्य का निर्वहन कर सकता है। इसके अंतर्गत शासन करना, सार्वजनिक सेवा करना, धार्मिक कार्यों में भाग लेना, नागरिकों के साथ सामाजिक संबंध स्थापित करना आदि कार्य शामिल हैं। इन कार्यों को करने से ही व्यक्ति नागरिक बनता है। अरस्तु ने नागरिकता के लिए अवकाश को अनिवार्य माना है और अवकाश के लिए दास को।

3) दासता दास के लिए लाभदायक है – दास प्रथा स्वामियों की तरह दासों के लिए भी लाभकारी है। दासों में तृष्णा या लालसा अधिक होने के कारण नैतिक गुणों का अभाव रहता है। इसके विपरीत स्वामी बौद्धिक स्तर पर श्रेष्ठ होते हैं। दास अपने स्वामी के साथ रहते हुए उन सभी गुणों को सीख सकता है जो प्रकृति ने उसे नहीं दिए हैं। जिस प्रकार घर में रहकर पशु भी अनुशासित रहना सीख जाता है तो दास के लिए यह काम मुश्किल नहीं है क्योंकि दास में मालिक के विवेक की एक झलक पाने की योग्यता होती है। इस प्रकार दासता लाभकारी व न्याय संगत दोनों है।

4) दासता समाज के लिए उपयोगी है – दासता के कारण स्वामी को समाज कल्याण के कार्यो के लिए कुछ अवकाश प्राप्त हो जाता है। नाटकों और धार्मिक कार्य में भाग लेना, सार्वजनिक सेवा करना, नागरिकों के साथ सामाजिक संबंध स्थापित करना आदि कार्यों के लिए दास की आवश्यकता होती है। यदि स्वामी के पास समय नहीं होगा तो वह सामाजिक कार्य में भाग नहीं ले सकेगा और उसका समाज उपयोगी कार्यों में योगदान का सपना पूरा नहीं होगा।

5) दासता नैतिक है – अरस्तु ने अपने सिद्धांत में दासता को नैतिक रुप दिया है। वह दासता को आत्मिक मानता है क्योंकि आत्मा शरीर के ऊपर प्रशासन कर इस आत्मिक उद्देश्य को पूरा करती है। शरीर का इस प्रकार आत्मिक विकास होता है। अरस्तु इसी प्रकार यह मानते हैं कि स्वामी के निर्देश में रहकर उसके कार्य को करते रहने से ही दास की नैतिकता का विकास होता है। दूसरी ओर स्वामी को भी घरेलू कार्यों से निश्चिंतता प्राप्त हो जाने पर वह भी अपनी आत्मिक उन्नति कर सकता है। इस प्रकार दासता नैतिक उन्नति का उपाय है।

6) दास शरीर की बनावट से ही स्वतंत्र लोगों से भिन्न है – अरस्तु के अनुसार दास को शरीर की बनावट से ही पहचाना जा सकता है। वह तो शारीरिक श्रम के लिए ही होता है। उसके शरीर और स्वतंत्र व्यक्ति के शरीर में प्राय: वैसा ही अंतर होता है, जैसा देवता की मूर्ति और मनुष्य के शरीर में और जब शरीर में ही इतना अंतर होता है तो आत्मा में भी अंतर होता ही होगा। यद्यपि आत्मा का अंतर स्पष्ट तौर पर दिखाई नहीं देता, जितना शरीर का अंतर दिखाई देता है। प्रकृति दास के शरीर को स्वामी के सेवा कार्यो के लिए बलवान बनाती है, जबकि स्वामी के शरीर को सरल व सीधा बनाती है। इस प्रकार असाधारण शरीर वाले को दास मान लेना न्यायपूर्ण ही है।

दासता के प्रकार

अरस्तु ने दासता के दो प्रकार बताए हैं –

1) प्राकृतिक दासता – जो व्यक्ति जन्म से ही मंदबुद्धि, अकुशल एवं अयोग्य होते हैं, वह प्राकृतिक या स्वाभाविक दास होते हैं। ये व्यक्ति प्रकृति द्वारा ही शासित होने के लिए बनाए जाते हैं।

2) वैधानिक दासता – इसके अंतर्गत वे लोग आते हैं जिन्हें युद्ध में हारने पर बंदी बनाकर दास के रूप में बदल दिया जाता है। यह दासता वैधानिक दासता कहलाती है। युद्ध में हार जाने पर किसी भी व्यक्ति को दास बनाया जा सकता है। परंतु अरस्तु के अनुसार यूनानियों को युद्ध में हार जाने पर भी दास नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि युद्ध में जीतने वाला शक्तिशाली तो हो सकता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि वह न्यायी भी हो।

दास प्रथा में सुधार के लिए सूत्र 

अरस्तु ने दास प्रथा का समर्थन जरूर किया है, परंतु वह दासों के प्रति किसी भी अमानवीय व्यवहार की निंदा करता है। बार्कर के अनुसार “अरस्तु ने अपनी वसीयत में लिखा था कि किसी भी दास को बेचा न जाये, उन्हें मुक्त कर दिया जाये।” उसने दासों के प्रति कुछ मानवीय व्यवहार के सूत्र बताए हैं ताकि उन्हें समाज की अविरल धारा से जोड़ा रखा जाये। अरस्तु दासों के प्रति की जाने वाले मानवीय व्यवहार के लिए निम्नलिखित सूत्र बताता है –

1. स्वामी का कर्तव्य है, कि वह दास की भौतिक एवं शारीरिक सुविधाओं का ध्यान रखे।

2. अपनी मृत्यु के समय स्वामी को अपने दासों को मुक्त कर देना चाहिए।

3. दासों को उनकी कार्य क्षमता के अनुसार कार्य देना चाहिए।

4. स्वामी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दासों की संख्या सीमित रहे।

5. दासों के प्रति अमानवीय व्यवहार करने वाले स्वामी को राज्य द्वारा दंडित किया जाना चाहिए।

6. यूनानी नागरिकों को दास नहीं बनाना चाहिए।

7. दासता वंशानुगत नहीं होती। यदि दास का पुत्र बुद्धिमान व योग्य है, तो उसे दासता से मुक्त कर देना चाहिए।

8. स्वामी द्वारा दास को अपने शरीर का अंग समझकर अच्छा व्यवहार करना चाहिए।

9. स्वामी को वचनबद्ध होना चाहिए कि यदि दास अच्छे कार्य करता है, तो उसे मुक्त कर दिया जाएगा।

आलोचना

अरस्तु की दासता संबंधी विचार अप्राकृतिक व अनुचित से लगते हैं। दास प्रथा को आवश्यक मानना वर्तमान मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल लगता है। उसकी दासता विषयक विचारों की आलोचना के निम्न आधार हैं –

1) दास प्रथा अप्राकृतिक है – दास प्रथा किसी भी तरह प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य में विभिन्नता तथा कुशाग्र बुद्धि के आधार पर अंतर होते हुए भी एक प्राकृतिक समानता होती है, जिसकी आलोचना करना मानव व्यक्तित्व का अपमान है। अरस्तु ने अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स में दास प्रथा का वर्णन किया है। इस वर्णन को देखकर मैक्सी कहता है “इस पुस्तक को भी अवैध घोषित कर दिया जाना चाहिए।” अतः दास प्रथा प्राकृतिक नहीं मानी जा सकती।

2. विरोधाभास – अरस्तु की दासता संबंधी विचार विरोधाभासों से भरपूर है। एक ओर तो अरस्तु दास को विवेकशून्य मानते हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि दास सीमित रूप में स्वामी के विवेक को समझ सकता है, इसलिए वह पशुओं से श्रेष्ठ है। एक तरफ तो वह दासता को प्राकृतिक मानता है, तो दूसरी तरफ वह दासता से मुक्ति की बात कहता है। वह यह बताने में असफल रहता है कि जब प्रकृति ने मनुष्य को दास बना दिया है, तो उसकी मुक्ति कैसे संभव है।

3. समाज में संघर्ष और अशांति की संभावना – आलोचकों का मानना है कि समाज का बुद्धिमान और बुद्धिहीनों के आधार पर स्वामी और दास, शासक व शासित में विभाजन खतरनाक सिद्ध होगा। इससे समाज में असंतोष, अशांति और अराजकता को बढ़ावा मिलेगा।

4. अवैज्ञानिक – अरस्तु इस बात को मानता है कि कुछ व्यक्ति जन्म से ही मूर्ख व कौशल हीन होते हैं, परंतु इस वैज्ञानिक तथ्य को भूल जाता है कि अच्छे वातावरण, उचित दशाओं तथा उचित शिक्षा या अन्य साधनों को प्राप्त करने पर वे बुद्धिमानी हो जाते हैं। ऐसा कोई भी सिद्धांत जो मनुष्य को पशु तुल्य मानता हो वैज्ञानिक कभी नहीं हो सकता।

5. यह नैतिकता के सभी सिद्धांतों के विरुद्ध है – एक मनुष्य के द्वारा दूसरे मनुष्य को दास बनाया जाना एक जघन्य व घृणास्पद विचार है। अरस्तु ने इस विचार का प्रतिपादन करके घोर अनैतिकता का पक्ष लिया है। समाज में ऐसा कोई भी कार्य जो सामाजिक मानदंडों के विरुद्ध हो, नैतिक नहीं हो सकता। यह मानवता की दृष्टि से घोर अपराध है, जो नैतिकता की बलि दे देता है।

6. समुचित अवकाश सभी को मिलना चाहिए – अरस्तु ने दास प्रथा के समर्थन में यह भी तर्क प्रस्तुत किया है कि श्रेष्ठ व्यक्तियों को अपने सार्वजनिक जीवन के लिए अवकाश की आवश्यकता होती है। परंतु ऐसा अवकाश सभी वर्गों को प्राप्त होना चाहिए, ताकि सभी वर्गों में व्यक्ति अपना बौद्धिक विकास करने, राजनीतिक व सामाजिक क्रियाकलापों में भाग लेने तथा कला व साहित्य का आनंद उठाने का अवसर प्राप्त कर सके। केवल किसी वर्ग विशेष को यह अधिकार देना समाजिक विषमता को जन्म देता है।

7. दास पारिवारिक संपत्ति नहीं – दास को सजीव संपत्ति मानना मानवीय दृष्टि से अनुचित है। दास की पशु से तुलना करना अपने आप में मानवीय अपराध है। अतः दास परिवार की संपत्ति नहीं हो सकता।

8. शारीरिक श्रम की उपेक्षा – अरस्तु ने दासता के विवेचन में शारीरिक काम करने वाले सभी श्रमिकों को दास की संज्ञा दी है। परंतु यह दृष्टिकोण संतोषजनक है। शारीरिक काम करने वाले यूनानी नागरिकों में भी होंगे, जबकि अरस्तु यूनानी नागरिकों को दास नहीं बनाना चाहता। अरस्तु द्वारा शारीरिक कार्य करने वाले सभी लोगों को दास बनाना शारीरिक श्रम की उपेक्षा करता है, जो अनुचित है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *