भारत के संविधान का इतिहास और विकास

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी 1600 ई. में व्यापार करने आयी। महारानी एलिजाबेथ प्रथम के चार्टर द्वारा उन्हें भारत में व्यापार करने के विस्तृत अधिकार प्राप्त थे। 1858 में सिपाही विद्रोह के परिणाम स्वरूप ब्रिटिश राज ने भारत के शासन का उत्तरदायित्व प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों में ले लिया। यह शासन 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक अनवरत रूप से जारी रहा। स्वतंत्रता मिलने के साथ ही भारत में एक संविधान की आवश्यकता महसूस की गई। 1946 में एक संविधान सभा का गठन किया गया और लगभग तीन वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को संविधान अस्तित्व में आया। यद्यपि संविधान और राजव्यवस्था की अनेक विशेषताएं ब्रिटिश शासन से ग्रहण की गई थी तथापि ब्रिटिश शासन में कुछ घटनाएं ऐसी थी, जिनके कारण ब्रिटिश शासित भारत में सरकार और प्रशासन की अलग रूपरेखा निर्मित की गई। इन घटनाओं ने हमारे संविधान और राजतंत्र पर गहरा प्रभाव डाला। भारत के संविधान का  इतिहास और विकास की घटनाओं का विवरण इस प्रकार है –

कंपनी का शासन (1773 से 1858 तक )
1973 का रेगुलेटिंग एक्ट

इस अधिनियम का अत्यधिक संवैधानिक महत्व है। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियमित और नियंत्रित करने की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया यह पहला कदम था। इसके द्वारा पहली बार कंपनी के प्रशासनिक और राजनीतिक कार्यों को मान्यता मिली। इसके द्वारा भारत में केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी गई।

अधिनियम की विशेषताएं

1. इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का ‘गवर्नर जनरल’ पद नाम दिया गया एवं उसकी सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन किया गया। पहला गवर्नर जनरल लार्ड वारेन हेस्टिंग्स था।

2. इस अधिनियम के माध्यम से मद्रास एवं मुंबई के गवर्नर को बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिए गए, जबकि पहले सभी प्रेसीडेंसीओं के गवर्नर एक दूसरे से अलग थे।

3. अधिनियम के अंतर्गत कोलकाता में 1774 में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीश थे।

4. इसके तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने और भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेना प्रतिबंध कर दिया गया।

5. इस अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार का कोर्ट आफ डायरेक्टर्स (कंपनी की गवर्निंग बॉडी) के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण सशक्त कर दिया गया। इसका कार्य राजस्व, नागरिक और सैन्य मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना था |

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

रेगुलेटिंग एक्ट 1773 की कमियों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद ने एक संशोधित अधिनियम 1781 में पारित किया, जिसे ‘एक्ट आफ सेटेलमेंट’ के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद एक अन्य महत्वपूर्ण अधिनियम पिट्स इंडिया एक्ट 1784 में अस्तित्व में आया।

अधिनियम की विशेषताएं –

1. इसने कंपनी के राजनैतिक और वाणिज्यिक कार्य को पृथक कर दिया।

2. इसने निदेशक मंडल को कंपनी के व्यापारिक मामलों के अधीक्षक की अनुमति तो दे दी, लेकिन राजनीति मामलों के प्रबंधन के लिए नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड आफ कंट्रोल) नाम से एक नए निकाय का गठन कर दिया/। इस प्रकार द्वैध शासन व्यवस्था का शुभारंभ किया गया।

3. नियंत्रण बोर्ड को यह शक्ति प्रदान की गई कि वह ब्रिटिश नियंत्रित भारत में सभी नागरिक, सैन्य सरकार व राजस्व गतिविधियों का अधीक्षण एवं नियंत्रण कर सके।

हीरा अधिनियम दो कारणों से महत्वपूर्ण था – पहला, भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्र को पहली बार ब्रिटिश आधी पत्ती का क्षेत्र कहा गया। दूसरा ब्रिटिश सरकार को भारत में कंपनी के कार्य और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया।

1833 का चार्टर अधिनियम

ब्रिटिश भारत के केंद्रीकरण की दिशा में जा अधिनियम निर्णायक कदम था। इस अधिनियम की विशेषताएं निम्नलिखित थी –

अधिनियम की विशेषताएं

1. बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, जिसमें सभी नागरिक और सैन्य शक्तियां निहित थी। इस प्रकार इस अधिनियम ने पहली बार एक ऐसी सरकार का निर्माण किया, जिसका ब्रिटिश कब्जे वाले संपूर्ण भारतीय क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण था। लॉर्ड विलियम बेंटिक भारत के प्रथम गवर्नर जनरल थे।

2. मद्रास और बंबई के गवर्नरोंको विधायिका संबंधी शक्ति से वंचित कर दिया गया। भारत के गवर्नर जनरल को पूरे ब्रिटिश भारत में विधायिका के असीमित अधिकार प्रदान कर दिए गए। इसके अंतर्गत पहले बनाए गए कानूनों को नियामक कानून कहा गया और नए कानून के तहत बने कानूनों को एक्ट अधिनियम कहा गया।

3. ईस्ट इंडिया कंपनी को एक व्यापारिक निकाय के रूप में की जाने वाली गतिविधियों को समाप्त कर दिया गया। अब यह विशुद्ध रूप से प्रशासनिक निकाय बन गया। इसके तहत कंपनी के अधिकार वाले क्षेत्र ब्रिटिश राजशाही और उसके उत्तर अधिकारियों के विश्वास के तहत ही कब्जे में रह गए।

4. चार्टर एक्ट 1833 ने सिविल सेवकों के चयन के लिए खुली प्रतियोगिता का आयोजन शुरू करने का प्रयास किया। इसमें कहा गया कि कंपनी में भारतीयों को किसी पद, कार्यालय और रोजगार को हासिल करने से वंचित नहीं किया जाएगा। हालांकि कोर्ट आफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया।

1853 का चार्टर अधिनियम

1793 में से 18 सो 53 के दौरान ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए चार्टर अधिनियम की श्रंखला में यह अंतिम अधिनियम था। संवैधानिक विकास की दृष्टि से यह अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम था।

अधिनियम की विशेषताएं

1. पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया गया। इसके तहत परिषद में 6 नए पार्षद और जोड़े गए, इन्हें विधान पार्षद कहा गया। दूसरे शब्दों में, गवर्नर जनरल के लिए नई विधान परिषद का गठन किया गया, जिसे भारतीय विधान परिषद कहा गया। परिषद की इस शाखा ने छोटी संसद की तरह कार्य किया। इसमें वही प्रक्रियाएं अपनाई गई, जो ब्रिटिश संसद में अपनाई जाती थी। इस प्रकार विधायकों को पहली बार सरकार के विशेष कार्य के रूप में जाना गया, जिसके लिए विशेष मशीनरी और प्रक्रिया की जरूरत थी।

2. सिविल सेवकों की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगिता व्यवस्था का शुभारंभ किया गया। इस प्रकार विशिष्ट सिविल सेवा भारतीय नागरिकों के लिए भी खोल दी गई और इसके लिए 1854 में मैकाले समिति की नियुक्ति की गई।

3. कंपनी के शासन को विस्तारित कर दिया गया और भारतीय क्षेत्र को इंग्लैंड राजशाही के विश्वास के तहत कब्जे में रखने का अधिकार दिया गया। लेकिन पूर्व अधिनियमों के विपरीत इसमें किसी निश्चित समय का निर्धारण नहीं किया गया था। इससे स्पष्ट था कि संसद द्वारा कंपनी का शासन किसी भी समय समाप्त किया जा सकता था।

4. पहली बार भारतीय केंद्रीय विधान परिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रारंभ किया गया। गवर्नर जनरल की परिषद में छु नए सदस्यों में से चार का चुनाव बंगाल, मद्रास, बंबई और आगरा की स्थानीय प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था।

(ताज का शासन (1858 से 1947 तक)
1858 का भारत शासन अधिनियम

इस महत्वपूर्ण कानून का निर्माण 1857 के विद्रोह के बाद किया गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या सिपाही विद्रोह भी कहा जाता है। भारत के शासन को अच्छा बनाने वाला अधिनियम के नाम से प्रसिद्ध इस कानून ने ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर दिया और गवर्नरों, क्षेत्रों और राजस्व संबंधी शक्तियां ब्रिटिश राजशाही को हस्तांतरित कर दी।

अधिनियम की विशेषताएं

1. भारत का शासन सीधे महारानी विक्टोरिया के अधीन चला गया। गवर्नर जनरल के पद का नाम बदलकर भारत का वायसराय कर दिया गया। वायसराय भारत में ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गया।

2. इस अधिनियम ने नियंत्रण बोर्ड और निदेशक कोर्ट समाप्त कर भारत में शासन की द्वैध प्रणाली समाप्त कर दी।

3. भारत के राज्य सचिव पद का सृजन किया गया, जिसमें भारतीय प्रशासन पर संपूर्ण नियंत्रण की शक्ति निहित थी। यह सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था और ब्रिटिश अंततः संसद के प्रति उत्तरदायी था।

4. भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यीय परिषद का गठन किया गया जो एक सलाहकार समिति थी। परिषद का अध्यक्ष भारत सचिव को बनाया गया।

5. इस कानून के तहत भारत सचिव की परिषद का गठन किया गया, जो एक निगमित निकाय थी और जिसे भारत और इंग्लैंड में मुकदमा करने का अधिकार था। इस पर भी मुकदमा किया जा सकता था।

1858 के कानून का प्रमुख उद्देश्य प्रशासनिक मशीनरी में सुधार था, जिसके माध्यम से इंग्लैंड में भारतीय सरकार का अधीक्षण और उसका नियंत्रण हो सकता था। इसने भारत में प्रसिद्ध शासन प्रणाली में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया।

1861, 1892 और 1909 के भारत परिषद अधिनियम

1857 की महान क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारत में शासन चलाने के लिए भारतीयों का सहयोग लेना आवश्यक है। इस सहयोग नीति के तहत ब्रिटिश संसद ने 1861, 1892 और 1909 में तीन नए अधिनियम पारित किए।

1861 के भारत परिषद अधिनियम की विशेषताएं

1. इसके द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने की शुरुआत हुई। इस प्रकार वायसराय कुछ भारतीयों को विस्तारित परिषद में गैर सरकारी सदस्यों के रूप में नामांकित कर सकता था। 1862 में लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को विधान परिषद में मनोनीत किया।

2. इस अधिनियम में मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसीओं को विधायी शक्तियां पुनः देकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत की। इस प्रकार इस अधिनियम में रेगुलेटिंग एक्ट 1773 द्वारा शुरू हुई केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति को उलट दिया और 1833 का चार्टर अधिनियम के साथ ही अपने चरम पर पहुंच गया। इस विधायी विकास की नीति के कारण 1937 तक प्रांतों को पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता हासिल हो गई।

3. बंगाल उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत और पंजाब में क्रमशः 1862,1866 और 1892 में विधान परिषदों का गठन हुआ।

4. इसने वायसराय को परिषद में कार्य संचालन के लिए अधिक नियम और आदेश बनाने की शक्तियां प्रदान की। इसने लॉर्ड कैनिंग द्वारा 1859 में प्रारंभ की गई पोर्टफोलियो प्रणाली को भी मान्यता दी।

5. इसने वायसराय को आपातकाल में बिना काउंसलिंग की संस्तुति के अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत किया। ऐसे अध्यादेश की अवधि मात्र छह माह होती थी।

1892 के अधिनियम की विशेषताएं

1. इसके माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त (गैर सरकारी) सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई, हालांकि बहुमत सरकारी सदस्यों का ही रहता था।

2. इसने विधान परिषदों के कार्यों में वृद्धि कर उन्हें बजट पर बहस करने और कार्यपालिका के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिकृत किया।

3. इसमें केंद्रीय विधान परिषद और बंगाल चेंबर्स ऑफ कॉमर्स में गैर सरकारी सदस्यों के नामांकन के लिए वायसराय की शक्तियों का प्रावधान था।

इस अधिनियम ने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों दोनों में गैर सरकारी सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक सीमित और परोक्ष रूप से चुनाव का प्रावधान किया, हालांकि चुनाव शब्द का अधिनियम में प्रयोग नहीं हुआ था। इसे निश्चित निकायों की सिफारिश पर की जाने वाली नामांकन की प्रक्रिया कहा गया।

1909 के अधिनियम की विशेषताएं

इस अधिनियम को मार्ले मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है। (उस समय लॉर्ड मार्ले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव थे और लॉर्ड मिंटो भारत में वायसराय थे।)

1. इसने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों के आकार में काफी वृद्धि की। केंद्रीय परिषद में इनकी संख्या 16 से 80 हो गई। प्रांतीय विधान परिषदों में इनकी संख्या एक समान नहीं थी।

2. इसने केंद्रीय परिषद में सरकारी बहुमत को बनाए रखा, लेकिन प्रांतीय परिषदों में गैर सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति थी।

3. इसने दोनों स्तरों पर विधान परिषदों के चर्चा कार्यों का दायरा बढ़ाया। उदाहरण के तौर पर अनुपूरक प्रश्न पूछना, बजट पर संकल्प रखना आदि।

4. इस अधिनियम के अंतर्गत पहली बार किसी भारतीय को वायसराय और गवर्नर की कार्यपरिषद के साथ एसोसिएशन बनाने का प्रावधान किया गया। सत्येंद्र प्रसाद सिंहा वायसराय की कार्यपालिका परिषद के प्रथम भारतीय सदस्य बने। उन्हें विधि सदस्य बनाया गया था।

5. इस अधिनियम में पृथक निर्वाचन के आधार पर मुस्लिमों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया। इसके अंतर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे। इस प्रकार इस अधिनियम ने सांप्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान की और लॉर्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में जाना गया।

6. इसने प्रेसिडेंसी कारपोरेशन, चैंबर्स ऑफ कॉमर्स विश्वविद्यालयों और जमींदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान भी किया।


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