उदारवाद का अर्थ | विशेषताएं | आलोचना

 

उदारवाद जिसे अंग्रेजी में liberalism कहते है, इस शब्द की उत्पति लैटिन भाषा के liber शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है स्वतन्त्र व्यक्ति। इस प्रकार इस सिद्धान्त का सार यह है कि व्यक्ति को स्वतन्त्रता मिले जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। उदारवाद एक विकासवादी विचारधारा है जिसका जन्म मध्य युग में सामंती व्यवस्था तथा राज्य के निरंकुशता के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।

 

उदारवाद की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं –

1. एन्साइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका के अनुसार- “स्वतन्त्रता उदारवाद के लिये प्रमुख तत्व है तथा उदारवाद की परिभाषा स्वतन्त्रता को सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक रूप से स्थापित करने के परिणाम के रूप में भी की जा सकती है।”

2. हेलीवेल के अनुसार- “उदारवाद जीवन के मानसिक, सामाजिक धार्मिक राजनीतिक तथा आर्थिक इत्यादि सभी क्षेत्रों में स्वतन्त्रता की मांग का प्रतीक है।”

ऊपर दी गई परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उदारवाद एक ऐसी विचारधारा है जो व्यक्ति की स्वतंत्रता को बहुत महत्व देती है। यह लोकतंत्रीय व्यवस्था का समर्थन करती है तथा व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता देने के पक्ष में है। इसके अनुसार राज्य को व्यक्ति के जीवन में केवल उसी सीमा तक हस्तक्षेप करना चाहिए जहां तक उसकी स्वतन्त्रता का हनन न होता हो।

 

उदारवाद की विशेषताएं अथवा सिद्धांत

यद्यपि उदारवाद में कई छोटी-छोटी विचारधाराएं शामिल हैं, परंतु फिर भी इसके कुछ मूल सिद्धांत हैं, जो इस प्रकार हैं-

(1) अतीत व परम्पराओं के प्रति उदासीनता: उदारवाद मध्य युगीन परंपराओं, रूढ़ियों और अंध विश्वासों के खिलाफ है। यह विचारधारा निरंकुशता के विरोध में विकसित हुई है। फिर चाहे वह राज्य, सामंत और चर्च की निरंकुशता ही क्यों न हो। इस विचारधारा के अनुसार प्राचीन व्यवस्था का उन्मूलन करके नए आदर्शों के आधार पर नए समाज का निर्माण करना चाहिए। यही कारण है कि उदारवादियों ने इग्लैंण्ड की गौरवपूर्ण क्रान्ति और फ्रांस की क्रान्ति का समर्थन किया।

(2) मनुष्य के विवेक में विश्वास: उदारवाद की सबसे महत्वपूर्ण मान्यता मनुष्य के विवेक में विश्वास है। उदारवाद का विकास इसी के आधार पर हुआ है। यूरोप में धर्म सुधार तथा नव जागरण के आन्दोलनों में यही दृष्टिकोण था। इस दृष्टिकोण के अनुसार किसी भी सिद्धान्त या संस्था को तभी स्वीकार किया जा सकता है जब वह बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरे।

(3) प्राकृतिक अधिकारों को मान्यता: उदारवादियों का विचार है कि व्यक्ति के अधिकार प्राकृतिक हैं। जॉन लॉक के अनुसार, जीवन, सम्पत्ति तथा स्वतंत्रता व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार हैं। राज्य का निर्माण तो इन अधिकारों की रक्षा के लिए हुआ है। चूंकि ये अधिकार व्यक्ति को राज्य या समाज द्वारा नहीं दिए गए है, इस कारण राज्य को इन्हें कम करने का कोई अधिकार नहीं है।

(4) व्यक्ति साध्य और राज्य साधन: उदारवाद की एक मान्यता यह भी है कि व्यक्ति साध्य है तथा राज्य साधन है। व्यक्ति ने समाज, राज्य तथा अन्य संस्थाएँ निर्मित की हैं, ताकि वे उसके विकास में सहायक बन सकें। उदारवादियों के अनुसार समाज व राज्य कृत्रिम संस्थाएँ है। इन सब संस्थाओं का अस्तित्व ही व्यक्ति के लिए है। यदि राज्य व समाज व्यक्ति का विकास नहीं करते हैं तो इनके अस्तित्व का कोई औचित्य नहीं है।

(5) राज्य व समाज कृत्रिम संस्थाएं हैं: उदारवादियों के अनुसार राज्य तथा समाज कृत्रिम संस्थाएँ हैं जो मनुष्य ने अपनी आवश्यकतानुसार बनाई है। मनुष्य ने राज्य व समाज का निर्माण अपने कल्याण के लिए किया है, इसलिए वह उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी कर सकता है। जॉन लॉक ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि राज्य मनुष्यों के कल्याण के लिए कार्य नहीं करता तो वे राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं।

(6) व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन: उदारवाद व्यावहारिक रूप में स्वतंत्रतावाद है। इसके अनुसार स्वतंत्रता व्यक्ति का प्राकृतिक तथा जन्मसिद्ध अधिकार है, इसलिए व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह अपनी स्वतन्त्रता के लिये अपने विवेक के अनुसार कार्य करे। उसके ऊपर इस क्षेत्र में किसी बाहरी सत्ता का नियन्त्रण न हो। लास्की ने कहा है कि उदारवाद का स्वतन्त्रता से सीधा सम्बन्ध है क्योंकि इसका उदय ही जन्म अथवा धर्म के आधार पर प्राप्त किये गए विशेषाधिकारों का विरोध करने के लिये हुआ है।

(7) राज्य का सीमित कार्य क्षेत्र: उदारवादी विचारक व्यक्ति की स्वतंत्रता के महान पोषक हैं। उनके अनुसार एक व्यक्ति अपने हित तथा अहित को अच्छी तरह समझता है। इसलिए व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उसकी इच्छानुसार अवसर मिलना चाहिए। राज्य को व्यक्ति के कार्यों में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए। उनके अनुसार सर्वोतम सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है।

 

उदारवाद का विकास

यूनानी युग: उदारवाद एक बहुत ही प्राचीन राजनीतिक विचारधारा है जिसके बीज हम यूनानी विचारकों के विचारों में भी देख सकते हैं। ग्रीक नगर राज्यों में संविधान प्रजातन्त्रात्मक था तथा व्यक्ति का विकास ही राज्य का उद्देश्य जाता था। किन्तु यूनानी काल का एक मुख्य दोष यह था कि उसमें दास प्रथा को स्वीकृति प्राप्त थी। दासों को किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। वैसे प्लेटो ने स्त्री तथा पुरुष को समान अधिकार देकर उदारवाद की ओर पहला कदम बढ़ाया था। अरस्तु ने व्यक्तिगत सम्पति का उद्देश्य सुखी परिवारिक जीवन एवं नैतिक जीवन का विकास करना माना और व्यक्ति के अधिकारों को महत्व दिया।

रोमन युग: अरस्तु के पश्चात् एपीक्यूरियन तथा स्टोइक विचारधाराओं ने उदारवाद को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने जीवन का लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति बताकर व्यक्ति के भौतिक विकास पर बल दिया और साथ ही साथ यह भी बतलाया कि कानून में ही सर्वोच्च सत्ता निहित होती है। उदारवाद को एक नई दिशा रोमन काल में मिली। रोमन विद्वानों ने निरंकुश शासन के खिलाफ विधि के शासन पर जोर दिया। उन्होंने राज्य की निरंकुशता के विरुद्ध कानून की सर्वोच्चता स्थापित करने का प्रयत्न किया।

मध्य युग: उदारवाद को मध्य युग में आगे प्रोत्साहन मिला। इस युग के आरम्भ में ट्यूटोनिक लोगों ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को महत्व दिया और प्रतिनिधित्व शासन प्रणाली पर बल दिया। मध्यकाल के विचारकों ने उस शासन को अच्छा माना, जिसमें प्रभुत्व शक्ति जनता में निहित हो। धार्मिक क्षेत्र में भी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास पर बल दिया गया।

जाॅन लाॅक: लाॅक को राजनीतिक उदारवाद का जन्मदाता माना जाता है, क्योंकि उसने अपने दर्शन में स्वतंत्रता को शासन का सर्वोच्च लक्ष्य माना है। लाॅक ने लिखा है प्राकृतिक अवस्था में राज्य की उत्पत्ति से पूर्व व्यक्तियों को कुछ अधिकार प्राप्त थे, जो राज्य की स्थापना के बाद भी पूर्णतया सुरक्षित रहे। लाॅक के अनुसार जीवन का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार तथा सम्पति का अधिकार व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार है, जिनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता और इन अधिकारों की रक्षा करने के लिए ही राज्य की उत्पत्ति हुई है। इसके अलावा शासक के द्वारा शक्ति का दुरुपयोग न किया जा सके इसलिए लाॅक ने शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया। वह कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को बिल्कुल अलग रखना चाहता था, क्योंकि उसका विचार था कि दोनों शक्तियां एक ही स्थान पर केंद्रित होने से स्वतन्त्रता को खतरा हो सकता है।

जाॅन स्टुअर्ट मिल: उदारवादी दर्शन की पूर्ण अभिव्यक्ति जे. एस. मिल की विचारधारा में ही मिलती है। मिल ने उन सिद्धान्तों को लागू करने के लिए संघर्ष किया, जो उसने बैंथम तथा जेम्स मिल से ग्रहण किये थे। उसने अधिकारों को व्यापक बनाने पर बल दिया और कहा कि स्त्रियों को भी नागरिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए।

मिल के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को विचार की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए और उसे इस बात का विश्वास होना चाहिए कि उसकी इस स्वतन्त्रता में राज्य अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। विचार की स्वतन्त्रता का उस समय तक कोई महत्व नहीं होगा जब तक कि उसे व्यक्त करने और उसके प्रसार हेतु संगठन स्थापित करने का अधिकार व्यक्तियों को न दिया जाए। अतः राज्य के द्वारा व्यक्ति को ये सभी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए। यदि कभी बहुसंख्यक वर्ग अपनी शक्ति के बल पर अल्पसंख्यक वर्ग की इन स्वतंत्रताओं को छीनने का प्रयत्न करें तो राज्य द्वारा उनकी रक्षा की जानी चाहिए। उसका यह दृढ़ विश्वास था कि राजनीति सामान्य हित का विषय है और इसलिए राज्य की शक्ति तथा नीति पर सामान्य नागरिकों का नियन्त्रण होना चाहिए।

टी. एच. ग्रीन: ग्रीन को आधुनिक उदारवादी विचारधारा का प्रतिनिधि विचारक कहा जाता है। ग्रीन के अनुसार राज्य साध्य की प्राप्ति का एक साधन मात्र है और राज्य का अस्तित्व व्यक्तियों का पूर्ण नैतिक विकास करना है। वह इस बात पर बार-बार बल देता है कि संस्थाओं का अस्तित्व व्यक्तियों के लिये है, व्यक्तियों का अस्तित्व संस्थाओं के लिए नहीं। उसका कहना है कि व्यक्ति अपने अन्तःकरण की मांग पर राज्य की सत्ता का भी विरोध कर सकता है। उसका यह विचार उदारवादी धारणा के ही अनुरूप है।

वैसे ग्रीन एक उदारवादी है, किन्तु वह ऐसा उदारवादी नहीं है जो राज्य या सरकार को एक अनिवार्य बुराई मानते हुए सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में उसके दखल देने का विरोध करता है। ग्रीन राज्य को एक आवश्यक बुराई मानने के स्थान पर उसे एक नैतिक संस्था मानता हैं, जिसका उद्देश्य व्यक्ति को नैतिक बनाना है और उसके स्वेच्छा से किये जाने वाले अच्छे कार्यों के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करना है। अपने इसी विचार के आधार पर वह कल्याणकारी राज्य के स्थापना की बात करता है।

 

उदारवाद के रूप

उदारवाद के मुख्यतः दो रूप हैं- 1. परम्परागत या शास्त्रीय उदारवाद
2. समकालीन या नव उदारवाद।

19वीं सदी के अंत तक जिस उदारवादी विचारधारा का विकास हुआ उसे प्रतिष्ठित अथवा शास्त्रीय उदारवाद की संज्ञा प्रदान की गयी। 20वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित उदारवाद में परिवर्तन आया तथा एक नवीन विचारधारा का विकास हुआ, जिसे समकालीन या नए उदारवाद का नाम दिया गया। इन दोनों में अन्तर, जो इस प्रकार हैं:

प्रतिष्ठित या शास्त्रीय उदारवाद

शास्त्रीय उदारवाद के प्रबल समर्थक जॉन लाॅक थे, जिनका समर्थन आर्थिक क्षेत्र में एडम स्मिथ, रिकार्डो, माल्थस जैसे अर्थशास्त्रियों ने किया था। इस उदारवाद ने व्यक्ति को केन्द्र-बिन्दु मानकर उसकी स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल दिया। प्रतिष्ठित उदारवाद के अनुसार राज्य एक आवश्यक बुराई है। इसी कारण राज्य का सीमित कार्य क्षेत्र निश्चित किया गया। राज्य को सामाजिक या आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का कोई औचित्य नहीं है, इस बात का समर्थन भी प्रतिष्ठित उदारवाद ने किया।

समकालीन या नव उदारवाद

समकालीन उदारवाद के प्रमुख समर्थक जॉन स्टुअर्ट मिल, ग्रीन तथा इसके बाद के विचारक लास्की, मैकाइवर, जी.डी. एच. कोच आदि है। समकालीन उदारवाद में व्यक्ति के हित के स्थान पर सामाजिक हित को महत्व दिया गया तथा राज्य के सकारात्मक स्वरूप पर बल देते हुए उसे कल्याणकारी कार्य करने का सुझाव दिया गया।

 

उदारवाद की आलोचना

उदारवाद की आलोचना निम्नलिखित तर्कों के आधार पर की गई हैं-

(1) मनुष्य प्रकृति से केवल स्वार्थी नहीं है: उदारवाद मनुष्य की प्रकृति को गलत रूप से चित्रित करता है और उसे मूलतः स्वार्थी मानता है, वास्तव में ऐसा नहीं है। मनुष्य में परमार्थ भी होता है, वह अपने साथ दूसरों की भलाई भी चाहता है। इसमें संदेह नहीं है कि मनुष्य में स्वार्थ की भावना अधिक होती है, परन्तु वह एक सामाजिक प्राणी भी है और वह अपने साथ अन्य व्यक्तियों को भी सुखी देखना चाहता है।

(2) राज्य आवश्यक बुराई नहीं है: व्यक्तिवादियों की भाँति उदारवादी भी राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं, जिसकी उत्पति व्यक्ति के अहित करने के लिए हुई है। परन्तु यह धारणा ठीक नहीं है। वास्तव में राज्य एक स्वाभाविक संस्था है जिसकी उत्पति मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा उसके जीवन के कल्याण के लिये हुई है। आधुनिक राज्य एक कल्याणकारी राज्य है जो मानव की समस्त प्रकार की जरूरतों की पूर्ति हेतु कार्य करता है।

(3) प्राकृतिक अधिकारों की धारणा गलत है: लॉक जैसे उदारवादी लेखकों का विचार है कि राज्य की उत्पत्ति से पहले प्रकृति द्वारा मनुष्य को कुछ प्राकृतिक अधिकार प्राप्त थे जिनमें जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पति के अधिकार प्रमुख थे। परन्तु यह विचार ठीक नहीं है। अधिकार केवल राज्य तथा समाज में ही प्राप्त होते हैं और राज्य ही इन अधिकारों की रक्षा करता है।

(4) मनुष्य स्वयं अपनी भलाई नहीं समझता: उदारवादियों का यह विचार भी ठीक नहीं है कि प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपनी भलाई समझता है। वास्तव में समाज में अधिकांश व्यक्ति अशिक्षित तथा अज्ञानी होते हैं, जिनका दृष्टिकोण बहुत सीमित होता है। वे अपनी भलाई को ठीक ढंग से समझने में असमर्थ होते हैं। राज्य को जनता के हित में व्यक्ति के असामाजिक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने का अधिकार मिलना ही चाहिए।

(5) खुली प्रतियोगिता दुर्बल वर्ग के लिए हानिकारक: उदारवादी आर्थिक क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता व खूली प्रतियोगिता का समर्थन करते हैं। उसी स्थिति के कारण ही भुखमरी अस्वस्थता तथा बेकारी उत्पन्न हुई है। मांग तथा पूर्ति का नियम उतना वैज्ञानिक नहीं है जितना कि उदारवादी इसे समझते हैं, इस नियम से किसी विशेष क्रिया का आभास नहीं होता बल्कि समय विशेष की क्रिया के रूप का पता चलता है, जो बदलती रहती है। जहाँ तक स्वतन्त्र प्रतियोगिता की बात है, इसके बहुत ही भयंकर परिणाम निकले। इसके परिणामस्वरूप एकाधिकारियों व व्यापार संघ की स्थापना हुई जिन्होंने प्रतियोगिता को ही समाप्त कर दिया है। इस प्रकार आज की मांग स्वतन्त्र प्रतियोगिता की नहीं बल्कि राज्य द्वारा सुरक्षा और उसके हस्तक्षेप की है।

(7) अस्पष्ट धारणा: उदारवाद की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि यह एक स्पष्ट विचारधारा नहीं है। इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती है। और न ही इसके सिद्धान्तों पर सभी उदारवादी सहमत है। यह विचारधारा विविध विद्वानों के आदर्शों का सम्मिश्रण है। इसमें कई स्थानों पर विरोधाभास भी पाए जाते हैं।

2 thoughts on “उदारवाद का अर्थ | विशेषताएं | आलोचना”

  1. Krishna kumar

    राजीनीति विषय संबंधी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए आपका धन्यवाद।

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