संप्रभुता की अवधारणा

संप्रभुता राज्य का एक अनिवार्य तत्व है और संप्रभुता के बिना राज्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। राज्य के लिए संप्रभुता का वही महत्व है जो व्यक्ति के जीवन के लिए प्राणों का कहा जा सकता है। संप्रभुता के कारण ही राज्य को अन्य समुदायों से उच्चतर स्थिति प्राप्त होती है और संप्रभुता के माध्यम से ही राज्य अपने कर्तव्यों का सम्पादन करता है।

सम्प्रभुता : अर्थ और परिभाषा
सम्प्रभुता का आंग्ल पर्यायवाची ‘सावरेनटी’ लेटिन शब्द ‘सुपर’ (Super) और ‘एनस’ (Anus) से लिया गया है, जिसका अर्थ उस भाषा में सर्वोच्च शक्ति होता है। शब्द की उत्पत्ति द्वारा स्पष्ट सम्प्रभुता के इसी अर्थ को वर्तमान समय में भी स्वीकार किया जाता है और सम्प्रभुता की प्रमुख रूप से इस प्रकार परिभाषाएँ की गयी हैं :

सम्प्रभुता की सर्वप्रथम व्याख्या जीन बोदां के द्वारा की गयी, जिसके अनुसार “सम्प्रभुता नागरिक व प्रजाजन के ऊपर राज्य की वह सर्वोच्च शक्ति है जिस पर कानून का कोई अंकुश न हो।” विलोबी के अनुसार, “सम्प्रभुता राज्य की सर्वोपरि इच्छा होती है। “

इनमें से किसी भी परिभाषा को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। इसका कारण यह है कि सम्प्रभुता के दो पक्ष होते हैं— आन्तरिक सम्प्रभुता एवं बाहरी सम्प्रभुता। सम्प्रभुता के इन दो पहलुओं में से इन परिभाषाओं में सम्प्रभुता के केवल एक पहलू—आन्तरिक सम्प्रभुता को ही प्रकट किया गया है।

आन्तरिक सम्प्रभुता: आन्तरिक कार्यक्षेत्र की दृष्टि से सम्प्रभुता का तात्पर्य यह होता है कि राज्य व्यक्तियों या व्यक्ति समुदायों से उच्चतर होता है और अपने निश्चित क्षेत्र के अन्तर्गत रहने वाले सभी व्यक्तियों को एवं अपने क्षेत्र के अन्तर्गत स्थित सभी समुदायों और संगठनों को किसी भी प्रकार की आज्ञा दे सकता तथा शक्ति के आधार पर इन आज्ञाओं को मनवा सकता है। व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह द्वारा इन आज्ञाओं के विरुद्ध अन्यत्र कहीं भी अपील नहीं की जा सकती है।

बाहरी सम्प्रभुता: बाहरी सम्प्रभुता का तात्पर्य यह है कि राज्य किसी भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नियन्त्रण से स्वतन्त्र होता है। एक राज्य को इस बात की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होती है कि वह विदेशों से जैसे चाहे, वैसे सम्बन्ध स्थापित करे। कानूनी दृष्टि से यह मैत्री युद्ध या तटस्थता, इनमें से किसी भी मार्ग को अपना सकता है।

सम्प्रभुता के दोनों पक्षों को देखते हुए सम्प्रभुता की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि “सम्प्रभुता राज्य की वह सर्वोच्च शक्ति है जिसके द्वारा राज्य के निश्चित क्षेत्र के अन्तर्गत स्थित सभी व्यक्तियों और समुदायों पर पूर्ण नियंत्रण रखा जाता है और जिसके आधार पर एक राज्य अपने ही समान दूसरे राज्यों से अपनी इच्छानुसार सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।”

सम्प्रभुता के लक्षण (विशेषताएं)
प्रभुभुता की उपर्युक्त धारणा के आधार पर सम्प्रभुता के प्रमुख रूप से निम्न लक्षण बताये जा सकते हैं-

1) निरंकुशता (Absoluteness): सम्प्रभुता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति से है और जैसा कि सम्प्रभुता के इस अर्थ मे ही स्पष्ट है, यह सर्वोच्च शक्ति निरपेक्ष एवं निरंकुश होती है। सम्प्रभुता आन्तरिक और बाहरी दोनों ही क्षेत्रों में निरंकुश एवं सर्वोच्च होती है। आन्तरिक क्षेत्र में सम्प्रभुता सभी व्यक्तियों और समुदायों पर नियन्त्रण रखती है; शक्ति के आधार पर इससे अपनी आज्ञाओं को मनवा सकती है एवं किसी के द्वारा भी राज्य की आज्ञाओं को चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसी प्रकार बाहरी क्षेत्र में एक राज्य दूसरे राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के सम्बन्ध में पूर्णतया स्वतन्त्र होता है। वैधानिक दृष्टि से आन्तरिक एवं बाहरी क्षेत्र में राज्य की संप्रभुता पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होता है।

2) सर्वव्यापकता (All comprehensiveness): सम्प्रभुता की सर्वव्यापकता का तात्पर्य यह है कि राज्य के अन्तर्गत स्थित सभी व्यक्तियों और समुदायों पर राज्य की प्रभुत्व शक्ति का नियन्त्रण रहता है और इनमें से कोई भी सम्प्रभु शक्ति से मुक्त होने का दावा नहीं करता। यदि राज्य के अन्तर्गत किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष को विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं तो इन विशेषाधिकारों का अस्तित्व राज्य की इच्छा पर निर्भर करता है। सर्वव्यापकता का केवल एक अपवाद कहा जा सकता है और वह है ‘राज्येतर सम्प्रभुता का सिद्धान्त’ (Principle of Extra-territorial Sovereignty)। इस सिद्धान्त के अनुसार एक देश के अन्तर्गत स्थित राजदूतावास उस देश की सम्पत्ति समझा जाता है और दूतावास के क्षेत्र में उसी देश के कानून लागू होते हैं, जिस देश का वह प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यह सिद्धान्त सम्प्रभुता की सर्वव्यापकता पर नियन्त्रण नहीं, वरन् अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टता और सौजन्य के आधार पर एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य को दिया गया विशेष सम्मान है। यदि कोई राज्य अपनी सम्प्रभुता का प्रयोग करते हुए इन विशेषाधिकारों एवं सुविधाओं को वापस लेना चाहे तो ले सकता है।

3) स्थायित्व (Permanency): अनेक बार सम्प्रभुता को एक सरकार विशेष का पर्यायवाची समझ लिया जाता है, लेकिन ऐसा समझना भ्रमपूर्ण है। वस्तुतः सम्प्रभुता स्थायी होती है और सम्प्रभुता का अन्त करना राज्य को ही समाप्त करना है। ब्रिटिश संविधान में ‘राजा मृत है, राजा चिरायु हो’ (King is dead, long live the King) की जो कहावत प्रचलित है, यह सरकार और सम्प्रभुता के भेद को स्पष्ट करते हुए यही बताती है कि सम्प्रभुता एक ऐसी संस्था के रूप में होती है जो कभी भी समाप्त नहीं होती। न केवल सरकारों के परिवर्तन से वरन् एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य पर विजय प्राप्त कर लेने से भी सम्प्रभुता नष्ट नहीं होती, वरन् विजित राज्य की प्रभुत्वशक्ति विजेता राज्य के हाथों में चली जाती है।

4) अपृथक्करणीयता (Inalienability): सम्प्रभुता राज्य से अपृथक्करणीय होती है अर्थात् राज्य स्वयं को नष्ट किये बिना सम्प्रभुता का त्याग नहीं कर सकता। सम्प्रभुता राज्य के व्यक्तित्व का मूल तत्व है और उसे अलग करना आत्महत्या के समान है। गार्नर ने कहा है कि “संप्रभुता राज्य का व्यक्तित्व और उसकी आत्मा है। जिस प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व अदेय(unpaid) है और वह किसी दूसरे को दे नहीं सकता, उसी प्रकार राज्य की सम्प्रभुता भी किसी अन्य को नहीं दी जा सकती है।”

5) अविभाज्यता (Indivisibility): सम्प्रभुता का एक अन्य प्रमुख लक्षण उसकी अविभाज्यता है। सम्प्रभुता पूर्ण है, उसे विभाजित करने का अर्थ है उसे नष्ट करना अथवा एक से अधिक राज्यों की रचना करना। गैटिल के शब्दों में “विभाजित सम्प्रभुता अपने आप में एक विरोधाभास है।” सम्प्रभुता का अर्थ राज्य की सर्वश्रेष्ठ सत्ता है और एक ही समय पर एक ही राज्य में दो सर्वश्रेष्ठ सत्ताएँ निवास नहीं कर सकतीं। संघ राज्य में भी सम्प्रभुता अविभाज्य होती है। यह सम्प्रभुता संविधान में निहित होती है और व्यवहार में इसका प्रयोग संविधान में संशोधन करने वाली शक्ति करती है।

6) अनन्यता (Exclusiveness): इसका अर्थ यह है कि एक राज्य में केवल एक ही प्रभुशक्ति हो सकती है, जो वैध रूप से जनता को आज्ञा पालन का आदेश देती है। एक राज्य के अन्दर एक से अधिक प्रभुशक्तियों का अस्तित्व मान लेना राज्य के भीतर राज्य की मान्यता को स्वीकार कर लेना और राज्य की एकता को भंग करना है।

7) मौलिकता (Originality): मौलिकता का अर्थ है कि राज्य की सम्प्रभुता सर्वथा मौलिक है, किसी अन्य सत्ता द्वारा प्रदत्त नहीं। यदि यह स्वीकार कर लिया जाये कि सम्प्रभुता प्रदत्त हो सकती है तो यह भी मानना पड़ेगा कि इसे देने वाली सत्ता प्रभुसत्ता से भी ऊपर होगी और अपनी दी हुई वस्तु को अपनी इच्छानुसार उसके द्वारा वापस लिया जा सकेगा। सम्प्रभुता की परिभाषा के अनुसार सम्प्रभुता से उच्च किसी भी सत्ता का अस्तित्व असम्भव है।

 

सम्प्रभुता के विविध रूप (सम्प्रभुता के प्रकार)

1) औपचारिक तथा वास्तविक सम्प्रभुता: औपचारिक या नाममात्र की सम्प्रभुता का तात्पर्य एक व्यक्ति या ऐसी इकाई से है, जिसके सैद्धान्तिक दृष्टि से सम्पूर्ण शक्ति निहित हो, किन्तु जिसके द्वारा व्यवहार में शक्ति का अपने ही विवेक के आधार पर उपयोग न किया जा सके, व्यवहार में इन शक्तियों का प्रयोग उनके नाम पर कोई अन्य शक्ति ही करे। इंग्लैण्ड का सम्राट इस प्रकार के औपचारिक सम्प्रभु का आदर्श उदाहरण है। सैद्धान्तिक दृष्टि से इंगलैण्ड में सम्राट ही सम्प्रभु है, किन्तु वास्तविक सम्प्रभु पार्लियामेण्ट और मन्त्रिमण्डल है जो व्यवहार में सम्राट की इस सम्प्रभुता का उपयोग करता है।

2) कानूनी सम्प्रभुता: राज्य के अन्तर्गत कानूनों का निर्माण करने और उसका पालन कराने की सर्वोच्च शक्ति जिस सत्ता के पास होती है, उसे कानूनी सम्प्रभुता कहा जाता है। यह वह सम्प्रभु है जिसे न्यायालय स्वीकार करता है। वैधानिक दृष्टि से इस सर्वोच्च शक्ति पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता और वह धार्मिक सिद्धान्तों, नैतिक निर्देशों तथा जनमत के आदर्शों का उल्लंघन कर सकता है। कानूनी सम्प्रभुता को स्पष्ट करते हुए गार्नर ने कहा है, “कानूनी सम्प्रभु वह निश्चित शक्ति है जो राज्य के उच्चतम आदेशों को कानून के रूप में प्रकट कर सके, वह शक्ति जो ईश्वरीय नियमों या नैतिकता के सिद्धान्त तथा जनमत के आदेशों का उल्लंघन कर सके।” इंग्लैण्ड में संसद सहित सम्राट को इसी प्रकार का कानूनी सम्प्रभु कहा जाता है। कानूनी सम्प्रभुता की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(i) यह निश्चित होती है और न्यायालय इसे स्वीकार करता है।
(ii) यह किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह में निहित हो सकती है।
(iii) यह निश्चित रूप से संगठित स्पष्ट और विधि द्वारा मान्य होती है।
(iv) व्यक्तियों को सभी अधिकार कानूनी सम्प्रभुता से ही प्राप्त होते हैं और स्वाभाविक रूप से व्यक्ति को इस सम्प्रभु के विरुद्ध कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता।
(v) यह असीमित और सर्वोच्च होती है।

3) राजनीतिक सम्प्रभुता: स्विट्जरलैण्ड जैसे प्रत्यक्ष प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था वाले देशों में तो कानूनी सम्प्रभुता और राजनीतिक सम्प्रभुता में कोई अन्तर नहीं होता, लेकिन जिस प्रकार का प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र वर्तमान समय में विश्व के अधिकांश देशों में प्रचलित है उसके अन्तर्गत कानूनी सम्प्रभु और राजनीतिक सम्प्रभु अलग-अलग इकाइयाँ होती हैं। कानूनी दृष्टि से तो इंग्लैंड में पार्लियामेण्ट सम्प्रभु है, किन्तु वास्तविक रूप में पार्लियामेण्ट की सत्ता पर अनेक प्रतिबन्ध हैं। पार्लियामेण्ट जनता के कल्याण और इच्छाओं के विरुद्ध किसी प्रकार के कानून का निर्माण नहीं कर सकती क्योंकि जनता पार्लियामेण्ट के सदस्यों को निर्वाचित करती और उन पर नियन्त्रण रखती है और पार्लियामेण्ट (कानूनी सम्प्रभु) की सत्ता पर नियन्त्रण रखने वाली इस शक्ति को ही राजनीतिक सम्प्रभु कहा जाता है।

लेकिन यह राजनीतिक सम्प्रभुता कानून द्वारा ज्ञात नहीं होती। यह तो असंगठित और अनिश्चित होती है। संकीर्ण दृष्टिकोण से एक देश के निर्वाचकों को राजनीतिक सम्प्रभु कहा जा सकता है क्योंकि वे ही कानूनी सम्प्रभु का निर्माण करते हैं, लेकिन दलीय राजनीति, लोकमत और प्रचार के साधनों का भी कानूनी सम्प्रभु पर नियन्त्रण रहता है। इसलिए गिलक्राइस्ट के शब्दों में कहा जा सकता है कि “राजनीतिक सम्प्रभु एक राज्य के अन्तर्गत उन सभी प्रभावों का योग है जो कानूनी सम्प्रभु के पीछे निहित रहते हैं।”

4) वैध और यथार्थ सम्प्रभुता: एक देश के संविधान द्वारा जिस व्यक्ति या समुदाय को शासन करने का अधिकार प्रदान किया जाता है, उसे वैध सम्प्रभु कहते हैं और एक देश के अन्तर्गत व्यवहार में अथवा वास्तव में जिस व्यक्ति या समुदाय के द्वारा शासन किया जाता है, उसे यथार्थ सम्प्रभु कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जनता से जो व्यक्ति समुदाय वास्तव में अपनी आज्ञाओं का कराता है, उसे यथार्थ सम्प्रभु कहते हैं।

सामान्यतया वैध और यथार्थ सम्प्रभु अलग-अलग नहीं होते, किन्तु जब कोई व्यक्ति एक श्रेणी या बहुसंख्यक जनसमूह राज्य के विद्यमान संविधान और कानून की उपेक्षा कर क्रान्ति, विद्रोह या शक्ति के प्रयोग द्वारा शासन शक्ति अपने हाथ में लेकर अपनी सरकार स्थापित कर लेता है तो ऐसी स्थिति में वैध सम्प्रभु पुरानी सरकार ही रहती है, लेकिन नवीन स्थापित सरकार उस राज्य की वास्तविक सम्प्रभु बन जाती है।

5) जन सम्प्रभुता: 18वीं सदी तक विश्व के प्रायः सभी राज्यों में स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश राजाओं का शासन था। इन राजाओं के शासनकाल में ही कुछ व्यक्तियों द्वारा जन-सम्प्रभुता या लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया। इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों में मासग्लिओ ऑफ पेडुआ (Marsiglio of Padua) तथा विलियम ऑफ ऑकम (William of Occam) का नाम लिया जा सकता है, लेकिन स्पष्ट रूप से इस सिद्धान्त की घोषणा रूसो के द्वारा की गयी। रूसो ने इस बात का प्रतिपादन किया कि जनता की वाणी ही ईश्वर की वाणी है, राज्य की प्रभुत्व शक्ति जनता में निहित होती है और सरकार शासन व कानून निर्माण की शक्ति जनता से ही प्राप्त करती है।

 

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सम्प्रभुता सिद्धांत की बहुलवादी आलोचना

(1) समाज की वर्तमान स्थिति और रचना के आधार पर: बहुलवादियों के अनुसार वर्तमान समय में समाज की स्थिति इस प्रकार की है कि अकेला राज्य मानवीय जीवन की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति में असमर्थ है। व्यक्ति अपनी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आर्थिक अनेक प्रकार के समुदाय बनाता है और मनुष्य के बहुमुखी विकास के लिए यह आवश्यक है कि मानव जीवन के विविध पक्षों से सम्बन्धित समुदायों को राज्य एवं अन्य समुदायों के हस्तक्षेप से स्वतन्त्र रहकर कार्य करने का अवसर मिले।

आज की स्थिति में अन्य समुदाय भी राज्य के समान ही और कुछ अंशों में तो उससे भी अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली हैं। राज्य द्वारा राजनीतिक क्षेत्र में कार्य किया जाता है और अन्य समुदायों द्वारा सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और मनोविनोद सम्बन्धी जीवन के विविध पक्षों के सम्बन्ध में कार्य किया जाता है तथा वर्तमान समय में सामूहिक रूप से ये सभी समुदाय राज्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं।

(2) ऐतिहासिक दृष्टिकोण के आधार पर: बहुलवादियों के अनुसार इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऑस्टिन के पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य की सत्ता कभी नहीं रही। प्राचीनकाल में भारत अथवा यूनान में इस प्रकार का कोई राज्य नहीं था। अरस्तू ने यद्यपि राज्य को सब सामाजिक संगठनों में सर्वोच्च बताया था, तथापि उसे कानून से उच्च नहीं समझा जाता था और तत्कालीन राज्य परम्परागत नियमों और रूढ़ियों की अवहेलना भी नहीं करता था। प्राचीन भारत में धर्म का स्थान राजा की आज्ञा से ऊपर था। मध्यकालीन राज्यों पर अनेक प्रकार के धार्मिक और सामाजिक बन्धन थे। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि प्रभुसत्ता का सिद्धान्त राज्य के लिए आवश्यक नहीं है और इस सिद्धान्त का अन्त करके वर्तमान काल के राज्यों को प्राचीन एवं मध्यकालीन राज्यों की भाँति प्रभुसत्ता से शून्य ही बना देना उचित है।

(3) व्यक्ति के विकास के आधार पर: बहुलवादियों के अनुसार सम्प्रभुता का विचार व्यक्ति के विकास में बाधक है क्योंकि यह राज्य को चरमसाध्य और व्यक्ति को साधन मात्र बना देता है जो वास्तविक स्थिति के नितान्त विपरीत है। राज्य व्यक्ति की प्रगति तथा आत्मसन्तुष्टि का साधन मात्र है और व्यक्ति की यह विकास तथा सन्तुष्टि बहुमुखी होती है। ऐसी स्थिति में राज्य और किन्हीं अन्य समुदायों के बीच विरोध उत्पन्न होने पर व्यक्ति को अपने विवेक के अनुसार अपनी भक्ति निर्धारित करने का अधिकार होना चाहिए जो केवल बहुलवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। इस प्रकार बहुलवादियों के अनुसार सम्प्रभुता की धारणा व्यक्ति के विकास में बाधक हैं और राज्य ही व्यक्ति की सम्पूर्ण भक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता है।

(4) लोकतन्त्र के आधार पर: सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना प्रभुसत्तासम्पन्न राज्य में नहीं वरन् बहुलवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। वर्तमान लोकतन्त्र में शासन पर जनता का कोई नियन्त्रण नहीं है। वास्तविक शासन नौकरशाही द्वारा किया जाता है जो व्यक्ति के विकास में बाधक है और लोकतन्त्र का उपहास है। सच्चा लोकतन्त्र तो व्यक्ति के विकास में सहायक होता है तथा इसका अभिप्राय व्यक्ति द्वारा शासन के सभी कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना है। यह केवल बहुलवादी व्यवस्था में ही सम्भव है जो विकेन्द्रीकरण और मानवीय जीवन के विविध पक्षों के उचित महत्व पर आधारित है।

(5) कानून के स्वरूप के आधार पर: ऑस्टिन ने कानून का एकमात्र स्रोत राज्य को माना था और यह कहा था कि कानून प्रभुसत्तासम्पन्न राज्य का आदेश मात्र होता है, किन्तु सर हेनरीमैन, डिग्विट और क्रैब आदि ने कानून के स्वरूप की गम्भीर मीमांसा करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि राज्य न तो कानून का निर्माता है और न ही उससे उच्च है। इन विचारकों के अनुसार राज्य कानून का निर्माता नहीं, अपितु उनका अन्वेषक या घोषणा करने वाला ही है।

(6) अन्तर्राष्ट्रीयता के आधार पर: अन्तर्राष्ट्रीयता के आधार पर सम्प्रभुता के सिद्धान्त की आलोचना दो प्रकार से की जा सकती है, कुछ लेखकों का विचार है कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विकास के परिणामस्वरूप बाहरी मामलों में राज्य की सम्प्रभुता नष्ट हो गयी है। इसके अतिरिक्त बहुलवादी यह भी कहते हैं कि सम्प्रभुता का सिद्धान्त ही संघर्षों एवं युद्धों का जनक है और विश्व शान्ति बनाये रखने के लिए सम्प्रभुता के सिद्धान्त का त्याग एक अनिवार्य आवश्यकता है। लास्की के शब्दों में, “असीमित एवं अनुत्तरदायी सम्प्रभुता का सिद्धान्त मानवता के हितों से मेल नहीं खाता और जिस प्रकार राजाओं के दैवी अधिकार समाप्त हो गये वैसे ही राज्य की सम्प्रभुता भी समाप्त हो जायेगी। यदि सम्प्रभुता का सारा विचार ही सदैव के लिए समाप्त कर दिया जाय तो राजनीति विज्ञान के प्रति यह एक बहुत बड़ी सेवा होगी।”