राजनीति विज्ञान की परिभाषा, प्रकृति एवं क्षेत्र

राजनीति विज्ञान की परिभाषा, प्रकृति एवं क्षेत्र


राजनीति विज्ञान का अर्थ

‘राजनीति’ शब्द की उत्पत्ति, जो अंग्रेजी शब्द ‘पॉलिटिक्स’ का पर्यायवाची है, ग्रीक शब्द पोलिस (Polis) से हुई है जिसका अर्थ है ‘नगर राज्य’। इस तरह राजनीति शब्द से जिस अर्थ का ज्ञान होता है वह नगर राज्य तथा उससे सम्बन्धित जीवन, घटनाओं, क्रियाओं, व्यवहारों एवं समस्याओं का अध्ययन है। जिस तरह कालान्तर में नगर राज्यों का विकास विशाल राज्यों तथा साम्राज्यों में हुआ, उसी प्रकार राजनीतिक विषय के अध्ययन में भी विकास हुआ। आधुनिक समय में इस विषय का सम्बन्ध राज्य सरकार, प्रशासन, व्यक्ति तथा समाज के विविध सम्बन्धों के व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध अध्ययन से है।

 

राजनीति विज्ञान की परिभाषा

राजनीति विज्ञान की परिभाषा के संबंध में दो दृष्टिकोण हैं- पहला, परंपरागत और दूसरा आधुनिक।

(1) परंपरागत दृष्टिकोण : राजनीति विज्ञान विषय के विद्वानों द्वारा इस विषय की विभिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की गयी है, जिन्हें प्रमुख रूप से निम्नलिखित तीन वर्गों में रखा जा सकता है :
(क)राजनीति विज्ञान केवल ‘राज्य के अध्ययन’ के रूप में;
(ख)राजनीति विज्ञान केवल ‘सरकार के अध्ययन’ के रूप में,
(ग)राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार दोनों के अध्ययन के रूप में।

(क) राजनीति विज्ञान राज्य के अध्ययन के रूप में: मानव के राजनीतिक जीवन का अध्ययन करने के लिए उन संस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है, जिनके अन्तर्गत मानव ने अपना राजनीतिक जीवन प्रारम्भ किया और जिनके माध्यम से वह अपने राजनीतिक जीवन को विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार की राजनीतिक संस्थाओं में राज्य सबसे प्रमुख है। ‘राजनीति’ का पर्यायवाची आंग्ल शब्द ‘पॉलिटिक्स’ (Politics) यूनानी भाषा के ‘Polis’ शब्द से ही बना है, जिसका अर्थ उस भाषा में नगर अथवा राज्य होता है। यूनान छोटे-छोटे नगर राज्यों में विभक्त था और इस कारण यूनानवासियों के लिए नगर तथा राज्य में कोई भेद नहीं था। धीरे-धीरे राज्य का स्वरूप बदला और आज इन राज्यों का स्थान राष्ट्रीय राज्यों ने ले लिया है। स्वाभाविक रूप से राज्य के इस विकसित और विस्तृत रूप से सम्बन्धित विषय को ‘राजनीति विज्ञान’ कहा जाने लगा। इस दृष्टिकोण के आधार पर राजनीति विज्ञान विषय के कुछ विद्वानों ने इस विषय की परिभाषा केवल राज्य के अध्ययन के रूप में की है।

ब्लंटशली के अनुसार, “राजनीति विज्ञान वह विज्ञान है जिसका सम्बन्ध राज्य से है और जो यह समझने का प्रयत्न करता है कि राज्य के आधारभूत तत्व क्या है, उसका आवश्यक स्वरूप क्या है, उसकी किन विविध रूपों में अभिव्यक्ति होती है तथा उसका विकास कैसे हुआ है।”

प्रसिद्ध विद्वान डॉ. गार्नर के अनुसार, “राजनीति विज्ञान विषय के अध्ययन का प्रारम्भ और अन्त राज्य के साथ होता है।”

(ख) राजनीति विज्ञान ‘सरकार के अध्ययन’ के रूप में: वर्तमान समय में राजनीति विज्ञान के कुछ विद्वान उपर्युक्त परिभाषाओं को स्वीकार नहीं करते। ये राज्य के स्थान पर सरकार के अध्ययन पर बल देते हैं। उनका कथन है कि राज्य तो एक अमूर्त संस्था है और प्रभुत्व शक्ति के प्रयोग के सम्बन्ध में इस संस्था का मूर्त रूप सरकार ही वह यन्त्र अथवा साधन है जिसके माध्यम से राज्य की इच्छा कार्यरूप में परिणत की जाती है। इसलिए सीले और लीकॉक आदि विद्वानों ने राजनीति विज्ञान को सरकार का ही अध्ययन कहा है। सीले के शब्दों में, “राजनीति विज्ञान उसी प्रकार सरकार के तत्वों का अनुसन्धान करता है जैसे सम्पत्तिशास्त्र सम्पत्ति का, जीवशास्त्र जीव का, बीजगणित अंकों का तथा ज्यामितिशास्त्र स्थान एवं लम्बाई-चौड़ाई का करता है। इसी प्रकार लीकॉक का भी कहना है कि “राजनीति विज्ञान सरकार से सम्बन्धित विद्या है।”

(ग) राजनीति विज्ञान ‘राज्य और सरकार’ दोनों का अध्ययन: उपर्युक्त सभी विद्वानों द्वारा दी गयी राजनीति विज्ञान की परिभाषाएँ वस्तुतः एकांगी हैं और जहाँ तक राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध है, इसमें राज्य और सरकार इन दोनों का ही अध्ययन किया जाता है। राज्य के बिना सरकार की कल्पना ही नहीं की जा सकती, क्योंकि सरकार राज्य के द्वारा प्रदत्त प्रभुत्व शक्ति का ही प्रयोग करती है और सरकार के बिना राज्य एक अमूर्त कल्पना मात्र है। राज्य की क्रियात्मक अभिव्यक्ति के लिए सरकार का और सरकार के अस्तित्व की किसी कल्पना के लिए राज्य का अस्तित्व अनिवार्य है। ऐसी स्थिति में राज्य के बिना सरकार और सरकार के बिना राज्य का कोई अध्ययन पूर्ण नहीं हो सकता और राज्य एवं सरकार दोनों ही राजनीति विज्ञान के अध्ययन का विषय बन जाते हैं।

फ्रांसीसी विचारक पॉल जैनेट ने इसी विचार को व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘राजनीति विज्ञान समाज विज्ञानों का वह अंग है जिसमें राज्य के आधार और सरकार के सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है।’ डिमॉक ने भी राजनीति विज्ञान को इसी प्रकार परिभाषित करते हुए कहा है कि “राजनीतिशास्त्र का सम्बन्ध राज्य तथा उसके साधन सरकार से है।” इस सम्बन्ध में गिलक्राइस्ट की परिभाषा कुछ अधिक स्पष्ट है, जिसमें उसने कहा है कि “राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार की सामान्य समस्याओं का अध्ययन करता है। लॉस्की, गैटिल और आधुनिक युग के सभी लेखकों ने भी इसी मत का समर्थन किया है।

(2) आधुनिक (व्यवहारवादी) दृष्टिकोण : परम्परागत रूप में राजनीति विज्ञान के अध्ययन को व्यक्तियों के राजनीतिक क्रियाकलापों तक ही सीमित समझा जाता था और यह अध्ययन संस्थात्मक था अर्थात् इसमें राज्य, सरकार और अन्य राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन को ही अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता था। लेकिन द्वितीय महायुद्ध के बाद ज्ञान के क्षेत्र में जिन नवीन प्रवृत्तियों का विकास हुआ, उनके परिणामस्वरूप राजनीति विज्ञान के अध्ययन की समस्त स्थिति के सम्बन्ध में असन्तोष का उदय हुआ। “इस असन्तोष ने क्षोभ को जन्म दिया और क्षोभ के परिणामस्वरूप स्थिति में परिवर्तन आया।”

द्वितीय महायुद्ध के बाद के वर्षों में राजनीति विज्ञान की परिभाषा के सम्बन्ध में जिस नवीन दृष्टिकोण का उदय हुआ, वह निश्चित रूप से अधिक व्यापक और यथार्थवादी है। इन वर्षों में राजनीति विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र में जो ‘व्यवहारवादी क्रान्ति’ हुई, उसमें इस बात पर बल दिया गया कि वर्तमान समय में समस्त मानव जीवन ने एक इकाई का रूप धारण कर लिया है और मानव जीवन के विविध पक्षों (राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक) को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इसलिए राजनीति विज्ञान को ऐसा विषय नहीं समझा जाना चाहिए जो मनुष्य के केवल राजनीतिक क्रियाकलापों का अध्ययन करता है।

आधुनिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत राजनीति विज्ञान को एक ऐसा व्यापक रूप प्रदान करने की चेष्टा की गयी है जिसमें राज्य को ही नहीं, वरन् समाज को भी सम्मिलित किया जा सके। यह समाजपरक दृष्टिकोण है जिसकी मान्यता यह है कि व्यक्ति के राजनीतिक जीवन को सामाजिक जीवन के सन्दर्भों में ही उचित रूप में समझा जा सकता है और राजनीतिक अध्ययन में ‘अन्तर अनुशासनात्मक दृष्टिकोण’ (Inter-disciplinary Approach) को अपनाया जाना चाहिए।

राजनीति विज्ञान की परिभाषा के सम्बन्ध में एक और दृष्टि से भी महत्वपूर्ण अन्तर आया है। इस विषय की परम्परागत परिभाषाएँ संस्थागत हैं और इनमें राजनीति विज्ञान के अध्ययन को राज्य, सरकार तथा अन्य राजनीतिक संस्थाओं के साथ जोड़ा गया है। लेकिन राजनीति विज्ञान के आधुनिक लेखक इस संस्थात्मक दृष्टिकोण को अनुचित और अपर्याप्त समझते हैं। आधुनिक लेखकों का विचार है कि राजनीतिक संस्थाओं के घोषित उद्देश्य चाहे कुछ भी क्यों न हों, उनके पीछे दृश्य और अदृश्य राजनीतिक प्रक्रिया कार्य करती है और यथार्थवादी राजनीतिक अध्ययन की दृष्टि से यह प्रक्रिया ही अधिक महत्वपूर्ण है। अतः आधुनिक लेखक राजनीतिक संस्थाओं की अपेक्षा उन साधनों और प्रक्रियाओं को अधिक महत्व देते हैं जिनके आधार पर राजनीतिक संस्थाएँ कार्य करती हैं। इसी आधार पर आधुनिक लेखकों (जी. ई. जी. कैटलिन, मैक्स वेबर, एच. डी. लासबेल, डेविड ईस्टन और हरमन हैलर आदि) के द्वारा राजनीति विज्ञान को ‘शक्ति’, ‘प्रभाव’, ‘सत्ता’, ‘नियन्त्रण’, ‘निर्णय’ और ‘मूल्यों’ का अध्ययन बताया गया है। इन विद्वानों के अनुसार राजनीति विज्ञान अन्य समाज विज्ञानों से इसी रूप में भिन्न है कि वह समाज के अन्तर्गत शक्ति या नियन्त्रण के तत्व का अध्ययन करता है। कैटलिन राजनीति विज्ञान को शक्ति का विज्ञान’ (Science of power) मानते हैं तथा लासवेल और कैपलान परिभाषित करते हैं कि “एक आनुभविक खोज के रूप में राजनीति विज्ञान शक्ति के निर्धारण और सहभागिता का अध्ययन करता है।”

 

राजनीति विज्ञान की प्रकृति

क्या राजनीति विज्ञान ‘विज्ञान’ है ?

यद्यपि हमारे अध्ययन के विषय को ‘राजनीति विज्ञान’ नाम से सम्बोधित किया जाता है, लेकिन इस विषय को विज्ञान मानने के विषय में राजनीति विज्ञान के विद्वानों में ही बहुत अधिक मतभेद हैं। एक ओर बक्ल, कॉम्टे, मेटलैण्ड, एमास, बियर्ड, कैटलिन, मोस्का, बर्क आदि विद्वान हैं जो राजनीति विज्ञान को विज्ञान के रूप में स्वीकार नहीं करते, तो दूसरी ओर अरस्तू इसे सर्वोच्च विज्ञान (Master Science) और बर्नार्ड शॉ इसे मानवीय सभ्यता को सुरक्षित रख सकने वाला विज्ञान कहते हैं। अरस्तू के अतिरिक्त बोंदा, हाब्स, माण्टेस्क्यू, ब्राइस, ब्लंटशली, डॉ. फाइनर, लास्की आदि अन्य विद्वान भी इसे विज्ञान के रूप में स्वीकार करते हैं।

राजनीति विज्ञान की वैज्ञानिकता के विरुद्ध तर्क

(1) सर्वमान्य तथ्यों का अभाव: राजनीति विज्ञान में गणित के दो और दो ‘चार’ या भौतिक विज्ञान के ‘गुरुत्वाकर्षण के नियम’ (Law of Gravitation) की भाँति ऐसे तथ्यों का नितान्त अभाव है, जिन पर सभी विद्वान सहमत हों। यदि एक ओर आदर्शवादी राज्य की सर्वोच्च सत्ता का प्रतिपादन करते हैं, तो दूसरी ओर अराजकतावादी राज्य की अनावश्यकता का। बेंजामिन फ्रेंकलिन, एवे सीज और लास्की जैसे अनेक विद्वान एकसदनात्मक व्यवस्थापिका के समर्थक हैं तो लैकी, सिजविक, ब्लंटशली आदि एकसदनात्मक व्यवस्थापिका के नितान्त विरोधी हैं। अन्य बातों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार के मतभेद विद्यमान हैं।

(2) कार्य और कारण में निश्चित सम्बन्ध का अभाव: भौतिक एवं रसायन विज्ञान में कार्य और कारण में निश्चित सम्बन्ध पाया जाता है, किन्तु राजनीतिक क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाएँ अनेक पेचीदे कारणों का परिणाम होती हैं और क्रिया प्रतिक्रिया के इस चक्र में अमुक घटना किन कारणों के परिणामस्वरूप हुई, यह कहना बहुत कठिन हो जाता है। 1917 की सोवियत क्रान्ति साम्यवादी विचारधारा के परिणामस्वरूप हुई या उस समय के विशेष अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण के कारण, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।

(3) पर्यवेक्षण एवं परीक्षण का अभाव: पदार्थ विज्ञानों में एक प्रयोगशाला में बैठकर यन्त्रों की सहायता से मनचाहे प्रयोग किये जा सकते हैं किन्तु राजनीति विज्ञान में इस प्रकार के पर्यवेक्षण एवं परीक्षण सम्भव नहीं हैं, क्योंकि राजनीति विज्ञान के अध्ययन विषय, मानव के क्रियाकलाप हमारे नियन्त्रण में नहीं होते हैं।

(4) मानव स्वभाव की परिवर्तनशीलता: प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन विषय निर्जीव होते हैं, लेकिन राजनीति विज्ञान का अध्ययन विषय मानव एक जीवित, जाग्रत और चेतन सत्ता है। अलग-अलग व्यक्तियों के स्वभाव में अन्तर होता ही है और एक समान परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति भी भिन्न-भिन्न रूप से आचरण करते हैं। ऐसी स्थिति में राजनीति विज्ञान, जो कि मनुष्य और उससे सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है। प्राकृतिक विज्ञान की तरह नहीं हो सकता।

(5) अचूक माप की कमी: शुद्ध माप विज्ञान की एक विशेषता है, लेकिन राजनीति विज्ञान में शुद्ध माप सम्भव नहीं है। मनुष्यों का आवेग, उत्तेजना, भावना, अभिलाषा, क्रोध, प्रेम आदि राजनीति को प्रभावित करने वाले तत्व नितान्त अस्पष्ट और अदृश्य हैं, जिन्हें ताप या गैस के दबाव की भाँति मापा नहीं जा सकता।

(6) भविष्यवाणी की क्षमता का अभाव: पदार्थ विज्ञान के नियम निश्चित होने के कारण किसी भी विषय के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जा सकती है। उदाहरणार्थ, यह सही-सही बताया जा सकता है कि किस दिन और किस समय चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण लगेगा। लेकिन राजनीति विज्ञान में यह नहीं बताया जा सकता कि किसी निश्चित विचार का जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा या चुनाव में किस पक्ष को विजय प्राप्त होगी। बर्क तो कहते हैं कि राजनीति में भविष्यवाणी करना मूर्खता है।

(7) परिभाषा, शब्दावली तथा अध्ययन पद्धतियों के सम्बन्ध में मत भिन्नता: विज्ञान की एक विशेषता यह मानी जाती है कि उसमें परिभाषा, शब्दावली तथा अध्ययन पद्धतियों के सम्बन्ध में निश्चितता तथा एकमतता हो, लेकिन हमारे अध्ययन विषय के सम्बन्ध में स्थिति विपरीत ही है। स्वयं इस विषय के नाम के सम्बन्ध में मत भिन्नता है और राजनीति विज्ञान की उतनी ही परिभाषाएँ हैं, जितने इसके लेखक। इस विषय के अन्तर्गत प्रजातन्त्र और समाजवाद जैसी अनेक बहुअर्थी धारणाएँ भी हैं।

(8) अध्ययन विषय आत्मपरक है, वस्तुपरक नहीं: विज्ञान वस्तुपरक होता है और इसकी अध्ययन वस्तु निर्जीव होने के कारण वैज्ञानिक मानवीय भावनाओं से दूर रहते हुए तटस्थता के साथ इनके अध्ययन में संलग्न रहता है। लेकिन राजनीति विज्ञान के अध्ययन में वस्तुपरक दृष्टिकोण अपनाना अर्थात् अध्ययन में तटस्थ रहना कठिन है। चाहे कश्मीर का प्रश्न हो या महाशक्तियों के शीतयुद्ध का प्रश्न, राजनीति विषयों का अध्ययन पदार्थ विज्ञानों की भाँति वैज्ञानिक रूप नहीं ले सकता।

राजनीति विज्ञान की वैज्ञानिकता

उपर्युक्त विचारों में सत्य का कुछ अंश अवश्य है, किन्तु इसके साथ ही बक्ल, काम्टे आदि विद्वानों का दृष्टिकोण विज्ञान की संकुचित एवं त्रुटिपूर्ण धारणा पर आधारित है। इन विद्वानों द्वारा पदार्थ विज्ञानों की परिभाषा को राजनीति विज्ञान जैसे सामाजिक विज्ञान पर लागू करने की भारी भूल की गयी है। सर्वमान्य तथ्यों और कारण तथा कार्य के बीच निश्चित सम्बन्ध पाये जाने वाले विषय को ही विज्ञान कहा जाये, इस प्रकार का दृष्टिकोण उचित नहीं है। गार्नर के शब्दों में विज्ञान की ठीक परिभाषा देते हुए कहा जा सकता है कि “एक विज्ञान किसी विषय से सम्बन्धित उस ज्ञान राशि को कहते हैं जो विधिवत् पर्यवेक्षण, अनुभव एवं अध्ययन के आधार पर प्राप्त की गयी हो और जिसके तथ्य परस्पर सम्बद्ध, क्रमबद्ध तथा वर्गीकृत किये गये हों।” चैम्बर्स डिक्शनरी, हर्नशाॅ और थामसन आदि विद्वानों द्वारा भी विज्ञान की परिभाषा इसी प्रकार से दी गयी है।

उपर्युक्त परिभाषाओं के सन्दर्भ में जब राजनीति विज्ञान पर विचार किया जाता है, तो यह नितान्त स्पष्ट हो जाता है कि राजनीति विज्ञान एक विज्ञान है। राजनीति विज्ञान के विज्ञान होने के पक्ष में निम्न तथ्य दिये जा सकते हैं :

(1) राजनीति विज्ञान का ज्ञान क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित: विज्ञान का सर्वप्रथम लक्षण यह होता है कि उसका समस्त ज्ञान क्रमबद्ध रूप में होना चाहिए। यह लक्षण राजनीति विज्ञान में पूरे-पूरे तौर पर विद्यमान है। राजनीति विज्ञान राज्य सरकार, अन्य राजनीतिक संस्थाओं, धारणाओं व विचारों का क्रमबद्ध ज्ञान प्रस्तुतः करता है। उदाहरण के लिए, राजनीति विज्ञान में राज्य के भूतकालीन स्वरूप के आधार पर ही वर्तमानकालीन स्वरूप का अध्ययन किया जाता है। विषय के अन्तर्गत पाये जाने वाले क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन के ये निश्चित प्रमाण हैं।

(2) अध्ययन सामग्री की प्रकृति में स्थायित्व एवं एकरूपता: अध्ययन सामग्री के आधार पर भी राजनीति विज्ञान को विज्ञान मानने से इन्कार नहीं किया जा सकता क्योंकि इसकी अध्ययन सामग्री में कुछ सीमा तक स्थायित्व एवं एकरूपता विद्यमान है। यद्यपि मानव व्यवहार में जड़ पदार्थ जैसी एकरूपता नहीं पायी जाती, फिर भी यह कहा जा सकता कि कुछ विशेष परिस्थितियों में मनुष्य का राजनीतिक आचरण एक निश्चित प्रकार का ही होगा।

(3) सर्वमान्य तथ्य: राजनीति विज्ञान में कुछ सर्वमान्य तथ्य अवश्य ही हैं। आचार्य कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में इसी प्रकार के सर्वमान्य तथ्य का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, “यदि दण्ड शक्ति का दुरुपयोग किया जाये, तो गृहस्थों की तो बात ही क्या, वानप्रस्थी और संन्यासी लोग भी क्रुद्ध हो जाते हैं और विद्रोह कर बैठते हैं। इसके विपरीत, दण्ड शक्ति का ठीक रूप में प्रयोग करने पर जनता में सर्वत्र धर्म का राज्य रहता है। ” इसी प्रकार कुछ अन्य बातों पर भी सभी सहमत हैं यथा-लोकसेवाओं के सदस्य स्थायी आधार पर नियुक्त किये जाने चाहिए तथा वे तटस्थ और निष्पक्ष होने चाहिए, न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष होनी चाहिए, असमानता, जातिवाद, निरक्षरता और अत्यधिक निर्धनता प्रजातन्त्र के लिए बुरी है।

(4) कार्य और कारण में पारस्परिक सम्बन्ध: कार्य और कारण के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में की गयी आपत्ति भी विशेष महत्व नहीं रखती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि पदार्थ विज्ञानों की तरह राजनीति विज्ञान में कारण तथा कार्य में प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता, फिर भी विशेष घटनाओं के अध्ययन से कुछ सामान्य परिणाम तो निकाले ही जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, जनता का असन्तोष, शासक वर्ग का शासित वर्ग के प्रति अपमानजनक व्यवहार और आर्थिक असमानता सदैव ही विद्रोह के सामान्य कारण रहे हैं, शक्तियों के विकेन्द्रीकरण से जनता में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाती है और शासकों को बिना किन्हीं प्रतिबन्धों के शासन शक्ति प्रदान कर दी जाये, तो वे भ्रष्ट हो जाते हैं।

(5) पर्यवेक्षण तथा परीक्षण सम्भव: राजनीति विज्ञान में पर्यवेक्षण तथा परीक्षण भी सम्भव है, यद्यपि इस विषय के अन्तर्गत इनका रूप पदार्थ विज्ञानों से भिन्न होता है। पर्यवेक्षण की पद्धति के आधार पर लोकतन्त्रवाद और दूसरी शासन पद्धतियों का अध्ययन करते हुए हम यह सामान्य परिणाम निकाल सकते है कि दूसरी शासन पद्धतियों की अपेक्षा लोकतन्त्र लोकहित के प्रति अधिक सजग रहता है। इसी प्रकार विविध राज्यों के कार्यक्षेत्र के अध्ययन के आधार पर यह परिणाम निकाला जा सकता है कि राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित रखने की विचारधारा के स्थान पर लोककल्याणकारी राज्य की नीति ही उपयुक्त है।

(6) भविष्यवाणी की क्षमता: जहाँ तक भविष्यवाणी की क्षमता का सम्बन्ध है, राजनीति विज्ञान में प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति तो भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है, पर इतना मानना होगा कि इस विषय में भी भविष्यवाणी सम्भव है चाहे यह भविष्यवाणी सदैव सत्य न हो। डॉ. फाइनर के शब्दों में, “हम निश्चिततापूर्वक भविष्यवाणियां नहीं कर सकते, लेकिन सम्भावनाएँ तो व्यक्त कर ही सकते हैं। इसके अतिरिक्त यदि सही रूप में भविष्यवाणी की क्षमता ही विज्ञान की कसौटी मान ली जाये, तो फिर ऋतु विज्ञान जैसे अनेक विषय भी विज्ञान नहीं कहे जा सकते क्योंकि उनके द्वारा की गयी भविष्यवाणियां अनेक बार गलत सिद्ध होती हैं।

 

राजनीति विज्ञान एक कला के रूप में

कुछ व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि कोई भी अध्ययन या तो विज्ञान की श्रेणी में आता है या कला की, लेकिन वस्तुतः ऐसा सोचना त्रुटिपूर्ण है। विलियम एसलिंगर ने ठीक ही लिखा है कि “विज्ञान और कला का परस्पर विरोधी होना जरूरी नहीं है। कला विज्ञान पर आधारित हो सकती है।” राजनीति विज्ञान के सम्बन्ध में यह बात पूर्णतया लागू होती है।

राजनीति विज्ञान के कला होने के सम्बन्ध में विचारकों में बहुत अधिक मतभेद नहीं है। कला ऐसे ज्ञान को कहा जा सकता है, जिसका उद्देश्य मानव जीवन को सुन्दर बनाना हो। एक विचारक के शब्दों में, ‘सत्यं शिवं और सुन्दरम की साधना ही कला है। इस अर्थ में राजनीति विज्ञान एक कला भी है और ब्लंटशली जैसे अनेक विचारकों का तो कथन है कि “राजनीति से विज्ञान की अपेक्षा कला का ही अधिक बोध होता है। राज्य का संचालन किस रूप में हो, क्रियात्मक दृष्टि से वह कैसा व्यवहार करे राजनीति में इन समस्त बातों का प्रतिपादन होता है।”

राजनीति विज्ञान में राज्य के भूतकालीन और वर्तमान स्वरूप का अध्ययन करने के साथ-साथ राज्य के भावी आदर्शात्मक स्वरूप का अध्ययन किया जाता है और यह बताया जाता है कि भविष्य में राज्य और राजनीतिक व्यवस्था कैसी होनी चाहिए। राजनीति विज्ञान में इस बात का प्रतिपादन किया जाता है कि विश्व शान्ति के हित में राष्ट्रीय राज्यों का अन्त कर एक विश्व संघ की स्थापना की जानी चाहिए। एक श्रेष्ठ राज्य और सुसंस्कृत आदर्श समाज की स्थापना राजनीति विज्ञान के अध्ययन का ध्येय और लक्ष्य है और इस दृष्टि से राजनीति विज्ञान एक उच्चकोटि की कला है जो समाज का यथार्थ चित्र भी प्रस्तुत करती है और पथ-प्रदर्शन भी। वर्तमान समय में मानव जीवन और राज्यों का पारम्परिक जीवन बहुत अधिक अन्तर्निर्भर हो गया है और ऐसी परिस्थितियों में राजनीति विज्ञान का कला रूप ही विश्व को विनाश के गर्त से बचा सकता है।

वस्तुतः राजनीति विज्ञान एक विज्ञान और कला दोनों ही है। कैटलिन राजनीति का अर्थ विस्तार करते हुए उसे कला, दर्शन और विज्ञान तीनों मानता है। लासवेल ने भी इसे ‘कला, विज्ञान और दर्शन का संगम’ कहा है।

 

राजनीति विज्ञान का क्षेत्र

विभिन्न विद्वानों तथा यूनेस्को सम्मेलन द्वारा राजनीति विज्ञान के संबंध में जो विचार व्यक्त किए गए हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि राजनीति विज्ञान के क्षेत्र के अंतर्गत प्रमुख रूप से निम्न बातें आती हैं:

1. मानव का अध्ययन : राजनीति शास्त्र (political science) के विषय में व्यक्ति की स्थिति केन्द्रीय है। यदि राजनीति शास्त्र में व्यक्ति का अध्ययन नहीं किया जाये तो उसका अध्ययन नीरस हो जायेगा। सभी राजनीतिक संस्थायें व्यक्ति द्वारा संचालित होती हैं। इनका अस्तित्व व्यक्ति की सुरक्षा, विकास एवं वृद्धि के लिए विद्यमान है। यदि ये व्यक्ति और समाज के हितों की पूर्ति नहीं करतीं तो ये अर्थशून्य हो जायेंगी और इनकी उपयोगिता नष्ट हो जायेगी। इनका औचित्य इसी में है कि ये व्यक्ति एवं समाज के मूल्यों को प्राप्त करें और उन्हें सुखी बनायें।

2. राज्य का अध्ययन : राज्य राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय है। राज्य का पूर्ण अध्ययन राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में आता है। यह राज्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य का अध्ययन करता है। यह इस बात का अध्ययन करता है कि राज्य कैसा रहा है, कैसा है और इसे कैसे होना चाहिए। राज्य के अतीत के अध्ययन द्वारा राजनीतिक संस्थाओं के प्रारम्भिक स्वरूपों तथा उनके विकास के भिन्न-भिन्न चरणों को समझा जा सकता है। राज्य के वर्तमान के अध्ययन द्वारा उन प्रक्रियाओं को समझने में सहायता मिलती है जो व्यक्ति और समाज के मूल्यों, जैसा कि शान्ति व्यवस्था, सुरक्षा, सुख आदि के मार्ग में बाधायें डालती हैं। इनके ज्ञान से वर्तमान चुनौतियों को समझा जा सकता है तथा समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। राज्य के भविष्य के अध्ययन से तात्पर्य यह है कि भूत और वर्तमान के अनुभव के आधार पर भविष्य की राजनीतिक संस्थाओं के स्वरूप एवं संगठन को इस प्रकार निर्धारित किया जाये कि वे व्यक्ति और समाज के उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें।

3. सरकार का अध्ययन : राज्य एक अमूर्त संस्था है। इसका मूर्त रूप सरकार है। राज्य सरकार के माध्यम से कार्य करता है। सरकार राज्य की इच्छा को प्रकट करती है, इसे कार्यान्वित करती है तथा इसकी सिद्धि के लिए प्रयास करती है। अतः राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में सरकार का अध्ययन अनिवार्य है।

राजनीति शास्त्र सरकार के ऐतिहासिक विकास, इसके भिन्न स्वरूपों ( प्रकारों), इसके भिन्न-भिन्न अंगों ( व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा इनके पारस्परिक सम्बन्धों, प्रशासन (नौकरशाही), राजनीतिक प्रक्रियाओं जैसे- निर्वाचन, प्रतिनिधित्व, राजनीतिक दल, दबाव समूहों, जनमत आदि का अध्ययन करता है।

4. राजनीतिक दर्शन का अध्ययन : राजनीतिक दर्शन राजनीति शास्त्र का विषय है। यह इसका आधार है। गिलक्राइस्ट ने राजनीतिक दर्शन को राजनीति शास्त्र का पूर्वगामी माना है। राजनीतिक दर्शन में उन राजनीतिक सिद्धान्तों, राज्य के स्वरूप एवं उद्देश्य, राज्य व्यक्ति एवं सरकार व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों आदि की विवेचना की जाती है जिन पर राजनीति शास्त्र आधारित है। प्लेटो से लेकर मार्क्स तक जितने भी राजनीतिक दार्शनिक हुए हैं उन्होंने राजनीतिक सिद्धान्तों को निर्धारित करने का प्रयास किया है। अतः राजनीति शास्त्र के लिये राजनीतिक दर्शन का अध्ययन अनिवार्य है।

5. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन : राजनीति शास्त्र किसी एक राज्य का अध्ययन नहीं करता। राज्य अकेले या शून्यता में कार्य नहीं करता। उसे दूसरे राज्यों के सन्दर्भ में कार्य करना पड़ता है। उसे दूसरे राज्यों के साथ अनेक प्रकार के समझौते एवं सन्धियाँ करनी पड़ती हैं। राज्यों के इन पारस्परिक सम्बन्धों को अन्तराष्ट्रीय सम्बन्धों की संज्ञा दी जाती है । कोई राज्य अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण की उपेक्षा नहीं कर सकता क्योंकि इसका प्रभाव राज्य की आन्तरिक एवं बाह्य नीतियों तथा नागरिकों के सामान्य जीवन पर पड़ता है। अतः राजनीति शास्त्र को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन करना पड़ता है।

6. राजनय : राजनीति शास्त्र राजनय का अध्ययन करता है। इसका मूल कारण यह है कि राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध मूलतः राज्यों की विदेश नीति और राजनय की कुशलता पर निर्भर करते हैं।

7. अन्तर्राष्ट्रीय विधि : अन्तर्राष्ट्रीय विधि राजनीति शास्त्र का विषय है। प्रत्येक राज्य सार्वभौम होता है और उसकी सीमायें निर्धारित होती हैं। फिर भी युद्ध और शान्ति के प्रश्न, युद्धवन्दियों का प्रश्न, समुद्री तट, खुला समुद्र, प्रत्यर्पण (Extradition), जैसे अनेक विषय हैं, जिन्हें राज्य स्वयं निश्चित नहीं करता। इन विषयों को अन्य राज्यों के सन्दर्भ में ही निश्चित किया जाता है। इन्हें जो विधि निर्धारित करती है उसे अन्तर्राष्ट्रीय विधि कहते हैं।

8. राजनीतिक दलों व दबाव समूह का अध्ययन : आज राजनीति विज्ञान राजनीति के सतही अध्ययन से आगे बढ़कर राजनीतिक जीवन की वास्तविकताओं का अध्ययन करने में संलग्न है और अध्ययन के इस क्रम में राजनीतिक दल व दबाव समूह सबसे अधिक प्रमुख रूप में आते हैं। वस्तुतः यही तो वह संस्थाएं हैं जिनके द्वारा समस्त राजनीतिक जीवन को परिचालित किया जाता है। वर्तमान समय में तो संविधान और शासन के औपचारिक संगठन की अपेक्षा भी राजनीतिक दल और दबाव समूह के अध्ययन को अधिक महत्व दिया जाने लगा है।

9. स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का अध्ययन : राजनीति विज्ञान स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र की राजनीतिक और अन्य प्रासंगिक समस्याओं का भी अध्ययन करता है। स्थानीय संस्थाओं की कार्यप्रणाली का अध्ययन और इसमें नागरिकों का सहयोग जैसे विषय राजनीति विज्ञान के महत्वपूर्ण अंग हैं।

आधुनिक राज्य मूलतः राष्ट्रीय इकाई है और स्थानीय स्वशासन की समस्याओं का अध्ययन राष्ट्रीय पृष्ठभूमि में ही किया जा सकता है, अतः राष्ट्रीय समस्याएँ हमारे अध्ययन का प्रमुख अंग हो जाती हैं।

वैज्ञानिक प्रगति के कारण आज सम्पूर्ण विश्व एक इकाई बन गया है और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का राष्ट्रीय स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। आज के राजनीतिशास्त्रियों द्वारा इस बात पर निरन्तर विचार किया जा रहा है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद से उत्पन्न संकट और इसी प्रकार अन्य समस्याओं के हल के लिए कौन-से उपाय अपनाये जाने चाहिए।