प्लेटो का आदर्श राज्य

 

            CONTENT:

  • राज्य और व्यक्ति का संबंध,
  • आदर्श राज्य का निर्माण,
  • आदर्श राज्य की आलोचना,

 

प्लेटो का आदर्श राज्य सभी आने वाले समय और सभी स्थानों के लिए एक आदर्श का प्रस्तुतीकरण है। उसने आदर्श राज्य की कल्पना करते समय उसकी व्यवहारिकता की उपेक्षा की है। यद्यपि प्लेटों के विचारों में व्यावहारिकता की कमी है लेकिन हमें उस पृष्ठभूमि को नहीं भूलना चाहिए जिसने उसके मस्तिष्क में आदर्श राज्य की कल्पना जागृत की।

 

राज्य और व्यक्ति का संबंध
प्लेटो व्यक्ति और राज्य में जीव का संबंध मानता है। उसका विश्वास है कि जो गुण और विशेषताएं अल्प मात्रा में व्यक्ति में पाई जाती हैं वहीं गुण विशाल रूप में राज्य में पाई जाती है। राज्य मूलतः मनुष्य की आत्मा का बाहरी स्वरूप है अर्थात् आत्मा (चेतना) अपने पूर्ण रूप से जब बाहर प्रकट होती है तो वह राज्य का स्वरूप धारण कर लेती है। व्यक्ति की संस्थाएं उसके विचार का संस्थागत स्वरूप है। जैसे राज्य के कानून व्यक्ति के विचारों से उत्पन्न होते हैं, न्याय उनके विचारों से ही अद्भुत हैं। यह विचार ही विधि-संहिता और न्यायालयों के रूप में मूर्तिमान होते हैं। प्लेटो ने मनुष्य की आत्मा में तीन तत्व बताएं हैं विवेक(ज्ञान), उत्साह (शौर्य) और सुधा (तृष्णा) और इनके कार्यो तथा विशेषताओं के आधार पर इन्हें राज्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बताया।

 

आदर्श राज्य का निर्माण
राज्य को उत्पन्न करने में तीन तत्व सहायक होते हैं-

1. आर्थिक तत्व- इसका संबंध उत्पादक वर्ग से है। आर्थिक तत्वों के अंतर्गत प्लेटो वासना अथवा क्षुधा तत्वों को राज्य का प्रारंभिक आधार मानकर अपनी विवेचना शुरू करता है। आर्थिक तत्वों से अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को अकेले पूर्ण नहीं कर सकता, इनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति को अन्य लोगों पर निर्भर होना पड़ता है। परस्पर निर्भरता से समाज में श्रम विभाजन तथा कार्य विशेषकरण उत्पन्न होता है। इससे आर्थिक संघों का निर्माण होता है तथा एक व्यक्ति एक कार्य का सिद्धांत व्यापक हो जाता है। सेवाओं के आदान-प्रदान से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है। प्लेटो के अनुसार आदर्श राज्य की स्थापना के लिए आवश्यकताओं की सर्वोत्तम तुष्टि और सेवाओं का समुचित आदान-प्रदान आवश्यक है।

2. सैनिक तत्व – इसका संबंध सैनिक वर्ग से है। यह राज्य निर्माण हेतु दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है, आवश्यकताओं में वृद्धि के साथ ही राज्य को अधिक भूभाग की आवश्यकता होती है। अतः युद्ध अनिवार्य हो जाता है। इस कार्य हेतु तथा युद्ध की संभावना और उससे रक्षा की आवश्यकता के फलस्वरुप राज्य में उत्साह, साहस या शूरवीर के तंत्र का उदय होता है। इससे सैनिक वर्ग का आविर्भाव होता है, जिसे युद्ध में सर्वाधिक आनंद आता है।

3. दार्शनिक तत्व – यह शासक वर्ग से संबंधित है। राज निर्माण का तीसरा आधार दार्शनिक तत्व है जिनका संबंध आत्मा के विवेक बुद्धि से है। प्लेटो का मानना है कि राज्य के रक्षकों में विवेक का गुण विद्यमान होना अनिवार्य है उसके अनुसार सैनिक योद्धा में सामान्यतः विवेक का यह गुण मिलता है किंतु विशेष रूप से यह पूर्ण संरक्षक या शासक में ही पाया जाता है। यह संरक्षक दो प्रकार के होते हैं- सैनिक संरक्षक तथा दार्शनिक संरक्षक।

प्लेटो का कहना है कि राज्य तभी आदर्श स्वरूप ग्रहण कर सकता है, जब राज्य का शासन ज्ञानी एवं निः स्वार्थ दार्शनिक शासकों द्वारा हो। इसी तत्व को ध्यान में रखकर वह राज्य के उच्च शिखर पर दार्शनिक को नियुक्त करता है।

आदर्श राज्य की आलोचना

1. आदर्श राज्य एक स्वप्निल संसार है – प्लेटो के आदर्श राज्य की अव्यावहारिकता को देखते हुए उसे एक स्वप्निल संसार कह कर पुकारा गया है। उसे बादलों में स्थित नगर की संज्ञा दी गई है। इसे संध्याकालीन तंतु कहा गया है जो क्षण भर के लिए दृष्टिगोचर होकर रात्रि की नीरवता में विलुप्त हो जाता है।

2. स्वतंत्रता का निषेध – प्लेटो का आदर्श राज्य व्यक्तियों को आवश्यक स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता है। इतना नियंत्रणकारी है कि इसमें व्यक्तियों की सभी प्रवृत्तियों का विकास संभव नहीं है। प्लेटो का आदर्श राज्य एक सर्वाधिकारवादी राज्य है और वह अपने स्वभाव से ही मानवीय स्वतंत्रता के हित में नहीं हो सकता है।

3. उत्पादक वर्ग की उपेक्षा – प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना का एक प्रमुख आधार यह है कि इसमें उत्पादक वर्ग की उपेक्षा की गई है। वह अन्य दोनों वर्गों के समान इसके लिए न तो विशेष शिक्षा की व्यवस्था करता है और न ही सामाजिक ढांचे में उनको महत्वपूर्ण स्थिति प्रदान करता है।

4. शासक वर्ग की निरंकुश सत्ता – प्लेटो के आदर्श राज्य में कानूनों और नियमों का पूर्ण अभाव है और इसमें दार्शनिकों को निरंकुश सत्ता सौंप दी गई है, जिसे किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। इन व्यक्तियों को शिक्षा द्वारा चाहे कितना ही विवेकशील और वीतरागो क्यों न बना दिया गया हो, अनियंत्रित शक्ति पा जाने पर मानवीय स्वभाव के अनुसार इसमें दोष आ जाना स्वाभाविक है।

5. कानून की उपेक्षा – आदर्श राज्य में कानून को कोई स्थान ना देकर भी प्लेटो ने बड़ी भूल की है। आगे चलकर लाज में कानून की अनिवार्यता को उसने स्वयं स्वीकार किया है। कानून की संपूर्ण उपेक्षा के कारण ही प्लेटो के आदर्श राज्य की अत्यंत कठोर आलोचना उसके काल से लेकर अब तक होती चली आई है।

6. व्यक्ति और राज्य की समानता को अत्यधिक महत्व- अपने आदर्श राज्य में प्लेटो ने व्यक्ति एवं राज्य में जिस बड़ी मात्रा में समानता के दर्शन किए हैं, उस मात्रा में व्यक्ति एवं राज्य में समानता वास्तव में होती नहीं है। इसी समानता को तथ्य मानकर प्लेटो ने मानव प्रकृति के तीन तत्वों विवेक, उत्साह तथा क्षुधा के आधार पर राजनीतिक समुदाय का निर्माण करने वाले लोगों को बड़ी कठोरता के साथ तीन भागों में बांट दिया है।

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