राष्ट्रीय शक्ति और तत्व

राष्ट्रीय शक्ति क्या है ?

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों ने राष्ट्रीय शक्ति को राष्ट्र का एक सबसे बड़ा केन्द्र बिन्दु माना है, जिसके चारों ओर उसकी विदेश नीति के विभिन्न पहलू चक्कर काटते रहते हैं। राष्ट्रीय शक्ति राष्ट्र की वह क्षमता है जिसके बल पर वह दूसरे राष्ट्रों से अपनी इच्छा के अनुरूप कोई कार्य करा लेता है। मार्गेंथाऊ के अनुसार ‘राष्ट्रीय शक्ति राष्ट्र की वह शक्ति है, जिसके आधार पर कोई व्यक्ति(राज्य) दूसरे राष्ट्रों के कार्यों, व्यवहारों और नीतियों पर प्रभाव तथा नियन्त्रण रखने की चेष्टा करता है।’ हॉब्स के शब्दों में, शक्ति वह बल है जो राष्ट्र अपने हित की पूर्ति के लिए दूसरे राष्ट्र पर डालता है ।

 

राष्ट्रीय शक्ति के तत्व

1) भूगोल : राष्ट्रीय भूमि का आकार स्वयं में एक शक्ति का तत्व है। सन् 1937 और 1945 में जापान चीन को उसके विशाल आकार के कारण ही नहीं कुचल सका था। भूगोल के अंतर्गत जलवायु, स्थलाकृति और उस देश की स्थिति आती है। जलवायु अत्यन्त प्रभावक भौगोलिक तत्व है जिसका देश के उत्पादन, सार्वजनिक स्वास्थ्य और चरित्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि प्रायः ठण्डे जलवायु वाले देशों के लोग गर्म जलवायु वाले देशों के निवासियों की अपेक्षा अधिक कर्मठ और परिश्रमी होते हैं।

किसी राष्ट्र की शक्ति को निर्धारित करने में उसकी स्थलाकृति जलवायु से भी अधिक आवश्यक होती है । यथार्थ में किसी भी राष्ट्र की जलवायु वहाँ की भू-आकृति द्वारा निर्धारित होती है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, तापमान, वायु का बहना आदि सभी कुछ वहाँ की स्थलाकृति से प्रभावित होता है।

एक देश की स्थिति वहां की राजनीति और युद्ध कौशल का निर्धारण करने में भी सहयोग देती है। किसी भी राष्ट्र की जलवायु इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी स्थिति भूमध्यरेखीय है अथवा विषुवतरेखीय अथवा इन दोनों के बीच में है। यह राष्ट्र की स्थिति पर निर्भर करता है कि वहां क्या उत्पादन हो सकता है, कौन-कौन से खनिज पदार्थ मिल सकते हैं और औद्योगिक विकास की क्या सम्भावनाएँ हैं।

2) प्राकृतिक संसाधन : राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन हैं। प्राकृतिक संसाधन किसी देश में उपलब्ध उपयोगी सामग्री और पद्धति को कहते हैं। प्राकृतिक संसाधनों में मुख्यतया खनिज, ईंधन, भूमि तथा भूमि से प्राप्त अथवा निकले पदार्थ; जैसे कोयला, तेल, वनस्पति आते हैं। मोटे रूप से प्राकृतिक स्रोतों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है— खनिज पदार्थ, वनस्पति उत्पादन तथा जीव-जन्तु।

3) जनसंख्या : आज विद्वानों में इस बारे मे कोई गम्भीर मतभेद नहीं है कि राष्ट्रीय शक्ति के स्रोत के रूप में आबादी का क्या महत्व है। जनसंख्या सैनिक और आर्थिक दृष्टि से किसी राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि कर सकती है। प्रथम श्रेणी के सैनिक अथवा शक्तिशाली राष्ट्रों के लिए विशाल जनसंख्या का होना आवश्यक है। विशाल जनसंख्या से बड़ी फौजें अधिक श्रमिक और श्रेष्ठ व्यक्तियों के चयन की सुविधा होती है। किसी राष्ट्र के आर्थिक उत्पादन का परिणाम अनेक कारकों में से इस कारक पर भी निर्भर करता है कि उस देश के पास श्रमिक बल या मजदूर वर्ग कितना है जो ठीक अर्थव्यवस्था के लिए सर्वथा आवश्यक हैं। इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में जनसंख्या का उपयोग आर्थिक बाजार के रूप में भी किया जा सकता है।

4) तकनीक : विज्ञान के व्यावहारिक ज्ञान को तकनीक का नाम दिया गया है। तकनीकी या प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत आविष्कार तथा वे सभी साधन आते हैं जिनसे राष्ट्र की भौतिक समृद्धि में सहायता मिलती है। तकनीकी उन्नति से अभिप्राय है नयी पद्धतियों का प्रयोग। यह एक प्रकार से पुराने तौर-तरीकों पर नूतन तौर-तरीकों की विजय है। तकनीकी परिवर्तन एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें कई तत्व शामिल हैं; जैसे विधान, शिक्षा, अनुसन्धान, वैयक्तिक एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में विकास प्रबन्ध, प्रविधि, उत्पादन सुविधाएँ, श्रमिक और मजदूर संगठन।

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र – कृषि, उद्योग, चिकित्सा शासन व्यवस्था, शिक्षा उपकरण, संचार साधन, अर्थव्यवस्था तथा युद्ध संचालन में तकनीकी शोधों का अपूर्व प्रभाव है। चिरकाल से तकनीक ने राष्ट्रीय शक्ति की स्थिति के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है और यह माना जाता है कि तकनीकी ज्ञान की दृष्टि से एक राष्ट्र जितना आगे बढ़ जाता है वह उतना ही अधिक शक्ति की दृष्टि से भी आगे आ जाता है। तकनीकी विकास से राष्ट्रीय शक्ति अनेक रूपों में प्रभावित होती है – तकनीकी प्रगति राष्ट्र के स्वरूप को बदल देती है, पुराना परम्परावादी समाज और राष्ट्र आधुनिक एवं प्रगतिशील बन जाता है, इससे ‘राष्ट्रों की शक्ति स्थिति में परिवर्तन आ जाता है, राष्ट्र की आक्रमणकारी शक्ति बढ़ जाती है, राष्ट्र की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि आज अपनी तकनीकी प्रगति के कारण ही संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ की गणना संसार की महाशक्तियों में होती है।

5) विचारधारा : राष्ट्रीय शक्ति के कुछ ऐसे तत्व भी होते हैं जिनके अस्तित्व का हम केवल अनुभव कर सकते हैं। ये तत्व भौतिक न होकर मानवीय तत्व हैं जिनमें नेतृत्व, मनोबल और विचारधारा प्रमुख हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा को विदेश नीति के वास्तविक उद्देश्य छिपाने का आवरण कहा जा सकता है। इस अर्थ में प्रयोग करने पर विचारधारा विदेश नीति के तात्कालिक लक्ष्य के रूप में शक्ति प्राप्ति के बारे में तत्पर होती है।

विचारधारा राष्ट्रीय शक्ति का तत्व है। आज सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विचारधारा के आधार पर ही लोकतान्त्रिक और साम्यवादी गुटों में विभाजित है। विचारधारा राष्ट्र के लोगों को जोड़ने में सीमेण्ट का कार्य करती है। विचारधारा से लोगों में समर्पण की भावना उत्पन्न होती है। विचारधाराएँ समुदाय की भूमिका पर बल देती हैं और व्यक्ति की भूमिका को गौण मानती हैं। विचारधारा सरकार को अपने नागरिकों का समर्थन प्राप्त करने में मदद देती है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति मूलतः शक्ति पर आधारित है तथापि नग्न शक्ति को मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक दृष्टि से जनता तथा राष्ट्रों द्वारा ग्राह्य बनाना वैचारिकी का ही मुख्य काम है। कोई भी राज्य अपने दावों की पूर्ति शक्ति सामर्थ्य के आधार पर नहीं, वरन् एक विशिष्ट सिद्धान्त की दुहाई देकर करता है ।

6) राष्ट्रीय चरित्र : किसी भी देश की राष्ट्रीय शक्ति का मूल्यांकन करते हुए राष्ट्रीय चरित्र को भले ही वह कितना ही अमूर्त हो, ध्यान में रखना होगा। रहन-सहन, विचार, भाषा, धर्म, संस्कृति व एक वस्तु के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोण की समानता को राष्ट्रीय चरित्र के नाम से सम्बोधित किया जाता है । यह राष्ट्रीय मनोबल पर बहुत अधिक प्रभाव डालता है। ब्रिटेन के निवासी अपनी संस्थाओं से प्रेम करते हैं, लोकतन्त्र के प्रति गहरी आस्था रखते है एवं क्रान्तिकारी परिवर्तनों की ओर उदासीन रहते हैं। यही कारण है कि ब्रिटेन दो विश्वयुद्धों की विभीषिका को झेलने के बाद भी पूर्ववत है, जबकि अन्य देशों में छोटे से छोटा संकट राज्य के स्वरूप को बदल देता है।

7) नेतृत्व : राष्ट्रीय शक्ति का एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व नेतृत्व है। नेतृत्व में ही राष्ट्रीय शक्ति के अन्य सभी आधार उचित दिशा निर्देशन पाते हैं। नेतृत्व शक्ति के अन्य तत्वों के विकास तथा अनुशीलन की प्रेरणा देता है। नेतृत्व अकेला भी कभी-कभी इतना प्रभावशाली होता है कि वह शक्ति का एक स्वतन्त्र तत्व माना जा सकता है।

जब मनोवैज्ञानिक आधार पर एक राज्य के निवासी अपने आपको एक नेता के साथ सम्बद्ध कर देते है। ऐसे लोकप्रिय नेता का आह्वान राष्ट्रीय मनोबल को ऊँचा उठाता है। चीन के 80 करोड़ नर-नारी माओ के साथ इसी प्रकार सम्वद्ध थे। हो ची मिन्ह के नेतृत्व ने वियतनामियों का मनोबल इतना ऊँचा कर दिया कि अमरीका को वियतनाम से पीछे हटना पड़ा।

8) कूटनीति : अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का संचालन विदेश नीति के द्वारा होता है अतः एक सुनिश्चित सुसम्बद्ध और तर्कसंगत विदेश नीति का होना जरूरी है। विदेश नीति को ठीक रीति के लागू करने का कार्य कूटनीति करती है। अतः कूटनीतिक कौशल भी शक्ति का एक आवश्यक अवश्य है। किसी राष्ट्र के वैदेशिक मामलों का उसके कूटनीतिज्ञों द्वारा संचालन करना राष्ट्रीय शक्ति के लिए शान्ति के समय उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि युद्ध के समय राष्ट्रीय शक्ति के लिए सैनिक नेतृत्व द्वारा चक्रव्यूह व दांवपेचों का संचालन । यह वह कला है जिसके द्वारा राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्वों को अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति में उन मामलों में अधिक से अधिक प्रभावशाली रूप में प्रयोग में लाया जाय, जो कि राष्ट्रीय हितों से सबसे स्पष्ट रूप से सम्बन्धित है ।

यदि मनोबल राष्ट्रीय शक्ति की आत्मा है तो कूटनीति उसका मस्तिष्क है। यदि कूटनीति का दृष्टिकोण दूषित है, उसके निर्णय गलत है और उनके निश्चय कमजोर हैं तो भौगोलिक स्थिति के तमाम लाभ, खाद्य पदार्थ, कच्चे माल, औद्योगिक उत्पादन की आत्म निर्भरता, सैनिक तैयारी तथा आबादी के गुण व संख्या के लाभ अन्त में एक राष्ट्र के लिए कम योगदान दे पायेंगे। एक राष्ट्र जो कि इन लाभों पर गर्व कर सकता है, यदि उसको कूटनीति चातुर्यपूर्ण नहीं है, तो वह अपनी प्राकृतिक पूँजी के बल पर केवल क्षणिक सफलताएँ प्राप्त कर सकता है।

9) सैनिक तैयारी : सैनिक तैयारी पर राष्ट्र की शक्ति की निर्भरता इतनी स्पष्ट है कि उसके स्पष्टीकरण की कोई आवश्यकता नहीं है । सैनिक तैयारी का अर्थ है उस सैनिक संगठन की तैयारी जो कि विदेश नीति के पालन में सहारा प्रदान करने में सफल हो सके। सैनिक दृष्टि में किसी राष्ट्र की शक्ति सैनिकों तथा शस्त्रों की संख्या तथा उनके सैन्य संगठन के विभिन्न अंगों के वितरण पर निर्भर रहती है। एक राष्ट्र के पास युद्ध सम्बन्धी नये तकनीकी आविष्कार की अच्छी समझ होने तथा उसके सैनिक नेतृत्व में युद्ध की नयी तकनीकी से सम्बन्धित व्यूह रचना व दांव-पेच में विलक्षण गुण विद्यमान होने पर भी वह राष्ट्र सैनिक रूप से कमजोर हो सकता है, यदि उसके पास ऐसा सैनिक संगठन न हो, जो अपने सम्पूर्ण रूप में तथा विभिन्न अंगों की शक्ति की दृष्टि से राष्ट्र की आवश्यकता से न तो कम है और न अधिक ही। राष्ट्र शक्ति की दृष्टि से शान्तिकाल में भी राष्ट्रों के पास न केवल पर्याप्त सेना अपेक्षित है, अपितु वह प्रशिक्षित और एकदम तैयारी की स्थिति में होनी चाहिए।