अरस्तु का आदर्श राज्य ( ideal state of aristotle )

 

                  CONTENT:

  • आदर्श राज्य का उद्देश्य,
  • आदर्श राज्य की विशेषताएं,
  • आदर्श राज्य के आवश्यक तत्व,

अरस्तु ने अपने ग्रंथ पॉलिटिक्स की सातवीं पुस्तक में अपने आदर्श राज्य का वर्णन किया है। अरस्तु के आदर्श राज्य का विचार उसका मौलिक विचार नहीं है। उसने मुख्य रूप से उसे प्लेटो के ग्रंथ लाॅज में वर्णित विधि अनुसार प्रशासित उपादर्श राज्य से ग्रहण किया है। इसीलिए अरस्तु के आदर्श राज्य को प्लेटो का उपादर्श या द्वितीय श्रेणी का राज्य कहा जाता है। अरस्तु के आदर्श राज्य का विवेचन करने से पूर्व उसके सामान्य राज्य के प्रति धारणा को जानना अति आवश्यक है।

अरस्तु का मानना है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य समाज में ही रह सकता है। मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास पूर्ण रूप से समाज में रहकर ही कर सकता है। यदि मनुष्य राज्य की आवश्यकता महसूस नहीं करता तो वह या तो राज्य से ऊपर है या राज्य से नीचे, अर्थात् वह या तो ईश्वर है या जानवर।

अरस्तु के अनुसार राज्य का जन्म मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ है। मानव जाति की निरंतरता को बनाए रखने हेतु सर्वप्रथम पुरुष और स्त्री मिलकर परिवार का निर्माण करते हैं। इस प्रकार परिवार एक तरफ स्त्री-पुरुष संबंधों का तथा दूसरी तरफ स्वामी दास संबंधों का परिणाम होता है। परिवार की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन के माध्यम से दासों का प्रवेश होता है। जब एक साथ कई परिवार संयुक्त होते हैं, तो ग्राम अस्तित्व में आता है। ग्राम मनुष्य के भौतिक आवश्यकताओं के साथ-साथ उनके नैतिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है। जब कई ग्राम संयुक्त होते हैं तो राज्य अस्तित्व में आता है जो मनुष्य की भौतिक, नैतिक तथा सुरक्षात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

 

आदर्श राज्य का उद्देश्य – अरस्तु के अनुसार आदर्श राज्य का उद्देश्य उत्तम जीवन की उपलब्धि है, तथा ऐसे जीवन की प्राप्ति के लिए आवश्यक भौतिक और आत्मिक(नैतिक एवं अध्यात्मिक) साधनों की व्यवस्था करना है।

 

आदर्श राज्य की विशेषताएं –

1. नैतिक स्वरूप – अरस्तु द्वारा प्रतिपादित आदर्श राज्य का स्वरूप भौतिक होने के साथ-साथ नैतिक भी है अर्थात् अरस्तु के अनुसार राज्य द्वारा व्यक्ति के भौतिक उत्थान का लक्ष्य उसका नैतिक दृष्टि से उत्थान करना है, उसे सद्गुणी चरित्र का बनाना है। अरस्तु के अनुसार उत्तम जीवन नैतिक जीवन के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता।

2. मध्यम मार्ग के सिद्धांत का प्रतिपादन – अरस्तु प्लेटो की तरह एक अति आदर्शवादी नहीं बल्कि व्यवहारिक आदर्शवादी है। उसने अपनी हर सिद्धांत का प्रतिपादन इसी तथ्य को ध्यान में रखकर किया है। व्यावहारिक होने के नाते इसलिए उसने मध्यम मार्ग के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। अरस्तु के अनुसार मध्य वर्ग द्वारा प्रशासित राज्य अधिक सुरक्षित है। जिस राज्य में 2 वर्ग ही विद्यमान है- अत्यधिक धनी और अत्यधिक निर्धन वहां मित्रताभाव और भाईचारा की भावनाएं उत्पन्न नहीं हो सकते। ऐसा राज्य हमेशा संघर्षों में गिरा रहेगा।

3. विधि का शासन – अरस्तु का आदर्श राज्य हमेशा एक संवैधानिक किया विधिनुसार प्रशासित राज्य है। अरस्तु के अनुसार प्रत्येक अच्छे या आदर्श राज्य में अंतिम संप्रभु विधि होनी चाहिए बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी नहीं। वह कहता हैं “व्यक्ति के शासन की तुलना में विधि का शासन श्रेष्ठ होता है, क्योंकि विधि ऐसा विवेक है जिस पर व्यक्ति की इच्छा का प्रभाव नहीं पड़ता”

 

आदर्श राज्य के आवश्यक तत्व – अरस्तु यहां भी अपना स्वर्णिम मध्यक (गोल्डन मीन) का सिद्धांत अपनाता है।

1. जनसंख्या –  प्लेटो की तरह अरस्तु आदर्श राज्य की कुल जनसंख्या तो निर्धारित नहीं करता है, लेकिन इस दृष्टि से मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए वह कहता है कि राज्य की जनसंख्या प्रबंधकीय दृष्टि से अनुकूल होनी चाहिए। वह न तो इतनी अधिक होनी चाहिए कि शासन व्यवस्था को बनाए रखना संभव न हो और न इतनी कम हो कि राज्य निर्भरता का लक्ष्य प्राप्त न कर सके।

2. भूत क्षेत्र और स्थिति – अरस्तु कहता है कि राज्य का क्षेत्र इतना अवश्य होना चाहिए कि वहां के नागरिक एक निश्चित, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र जीवन जीने में समर्थ हो सके, लेकिन इस सीमा से अधिक इतना बड़ा न हो कि वह राज्य में विलासिता और शिथिलता को जन्म दे।

3. जन चरित्र – आदर्श राज्य की जनता का चरित्र यूनानियों के चरित्र के समान होना चाहिए। उनकी तरह उसके चरित्र में साहस, उत्साह, जागरूकता, स्वतंत्रता-प्रियता, बुद्धिमता, कला-प्रियता आदि का समावेश होना चाहिए।

4. वर्ण व्यवस्था – अरस्तु राज्य में निम्नलिखित वर्गों को महत्वपूर्ण मानता है कृषक, शिल्पी, सैनिक, व्यापारी, पुरोहित और शासक। अरस्तु प्रथम दो वर्गों को नागरिकता का स्तर प्रदान नहीं करता है। वे राज्य में निवास करते हैं, राज कार्य करते हैं, किंतु राज्य के सदस्य नहीं होते। उनकी स्थिति दास स्थिति है। अन्य चार वर्गों के सदस्य राज्य के नागरिक होते हैं तथा वे युवावस्था में सैनिकों का, प्रौढ़ावस्था में राज्य शासन संचालन का तथा वृद्धावस्था में पुरोहितों का कार्य करते हैं।

5. शिक्षा व्यवस्था – अरस्तु समस्त नागरिकों के लिए शिक्षा व्यवस्था करता है। अरस्तु की शिक्षा व्यवस्था सात वर्ष के क्रम (cycle of seven) में चलती है, तथा 7 से 14 तथा 14 से 20 वर्ष की शिक्षा राज्य द्वारा दी जाती है। 7 से 14 वर्ष तक की शिक्षा में व्यायाम तथा संगीत की शिक्षा प्रमुख है, तथा उसका उद्देश्य शरीर और आत्मा का प्रशिक्षण और नैतिक गुणों का विकास है। 14 से 21 वर्ष तक की शिक्षा का उद्देश्य बौद्धिक और सैनिक प्रशिक्षण प्रदान करना है।

6. आर्थिक व्यवस्था – आदर्श राज्य की अर्थव्यवस्था पर चिंतन करते हुए अरस्तु प्लेटो द्वारा प्रतिपादित संपत्ति के साम्यवाद की व्यवस्था को अनुपयुक्त मानकर उसे नकार देता है, तथा उसके स्थान पर व्यक्तिगत संपत्ति के महत्व को स्थापित करते हुए उसके सार्वजनिक उपभोग की व्यवस्था को स्थापित करने पर जोर देता है। इस व्यवस्था से न सिर्फ उत्पादन अधिक से अधिक होगा, बल्कि उसके सार्वजनिक उपभोग से नागरिकों में सहयोग सद्भावना और एकता की भावना का भी स्वस्थ विकास होगा।

7. व्यक्तिगत परिवार – अरस्तु के आदर्श राज्य में सभी नागरिकों को व्यक्तिगत आधार पर पारिवारिक जीवन व्यतीत करने का अधिकार प्राप्त होगा। प्लेटो द्वारा प्रतिपादित पत्नियों के साम्यवाद के माध्यम से स्थापित सामूहिक परिवार के विचार को अनुपयुक्त और अनैतिक मानता है। वैयक्तिक परिवार को नैतिकता की दृष्टि से ही नहीं, व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए भी वह आवश्यक मानता है और उसका समर्थन करता है।

8. शासन व्यवस्था – आदर्श राज्य की शासन व्यवस्था का वर्णन करते हुए अरस्तु उसके मुख्य रूप से 3 तरह के कार्य और उनको संपन्न करने तथा उसके तीन अंगों का वर्णन करता है। यह तीन तरह की कार्य है – शासन संबंधी विषयों पर चिंतन का निर्णय लेने वाली सभा अर्थात् विधायिका, जिसके सब नागरिक सदस्य होते हैं। अरस्तु ने उसे असेंबली के नाम से पुकारा है। दूसरा अंग है शासकों प्रशासकों का जिनका कार्य शासन का संचालन करना है अर्थात् कार्यपालिका। इसे अरस्तु मजिस्ट्रेसी के नाम से पुकारता है। संसद का तीसरा अंग है न्यायिक अधिकारी जो न्याय प्रदान करने का कार्य करते हैं। सभी नागरिक बारी-बारी से इसके सदस्य होते हैं। यह न्यायपालिका है। आधुनिक समय में भी सरकार या शासन व्यवस्था के यही तीन अंग हैं जो उसका निर्माण करते हैं।

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