हीगल का द्वन्द्ववाद का विचार

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  • हीगल का द्वन्द्ववाद का विचार
  • द्वन्द्ववाद की आलोचना
  • द्वन्द्ववाद का महत्व

हीगल का द्वन्द्ववाद का विचार उसके सभी महत्वपूर्ण विचारों में से एक प्रमुख विचार है। यह विश्व इतिहास की सही व्याख्या करने का सबसे अधिक सही उपकरण है। हीगल ने इस उपकरण की सहायता से अपने दार्शनिक चिंतन को एक नया रूप दिया है। इसी विचार के कारण हीगल को राजनीतिक चिंतन में एक महत्वपूर्ण जगह मिली है। हीगल का द्वन्द्ववाद प्राथमिक महत्व का है। हीगल की प्रसिद्ध पुस्तक ‘साइंस ऑफ लॉजिक’ में इसका विवरण मिलता है।

हीगल के अनुसार अंतिम सत्य बुद्धि यह विवेक है। इसलिए इसके विकास की प्रक्रिया को द्वन्द्ववाद का नाम दिया है। हीगल ने इस शब्द को यूनानी भाषा के डायलेक्टिक जो कि डायलेगो (Dialego) से निकला है, से इसका अर्थ लिया है। डायलेगो का अर्थ वाद-विवाद या तर्क वितर्क करना होता है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग सुकरात ने किया था। इस पद्धति का प्रयोग करके वह अपने विरोधियों द्वारा दिए गए तर्कों का विरोध करके तथा उनका समाधान करके अंतिम सत्य तक पहुंचने का प्रयास करता था। उस समय सत्य की खोज वाद-विवाद द्वारा ही की जाती थी। हीगल तक यह पद्धति प्लेटों के माध्यम से पहुंची है। यह प्रक्रिया यूनानी दर्शन में प्रचलित थी। यूनानी दार्शनिकों ने इस प्रक्रिया का उपयोग राजनीति में ही किया। यूनानी विचारकों के अनुसार राजतंत्र अपने प्रतिवाद के रूप में निरंकुश शासन में बदल जाता है। जब निरंकुशवाद अपने चरम शिखर पर पहुंच जाता है, तो इस प्रतिवाद का नाश होकर लोकतंत्र की स्थापना होती है। यूनानी विचारक द्वन्द्ववाद को तिहरी प्रक्रिया मानते थे। उनके अनुसार राजतंत्र पहले कुलीनतंत्र में और बाद में लोकतंत्र में परिवर्तित हो जाता है। लोकतंत्र पहले अधिनायकतंत्र में तथा बाद में यह राजतंत्र में बदल जाता है। यह प्रक्रिया निरंतर रूप से चलती रहती है।

हीगल ने इस त्रिमुखी प्रक्रिया में परिवर्तन करते हुए इसे राजनीतिक क्षेत्र की बजाए जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू किया। उसने इस प्रक्रिया के तीन तत्व – वाद(thesis), प्रतिवाद(antithesis) और संवाद (synthesis) बताये। उसका कहना था कि प्रत्येक विचार और घटना परस्पर दो विरोधी नीतियों- वाद और प्रतिवाद के संघर्ष से उत्पन्न होती है। इन दोनों के सत्य तत्वों को ग्रहण करके एक नया रूप जन्म लेता है, जिसे संवाद कहा जाता है। यह वाद और प्रतिवाद दोनों से श्रेष्ठ होता है, क्योंकि इसमें दोनों के गुण अंतर्निहित होते हैं। कालांतर में यह वाद बन जाता है। वही त्रिमुखी प्रक्रिया फिर से दोहरायी जाती है। इस प्रकार वाद, प्रतिवाद और संवाद की प्रक्रिया निरंतर रूप से चलती रहती है। हीगल का कहना है कि यह निरंतर आगे बढ़ने वाली प्रक्रिया है। यह सदैव विकास के उच्चतर स्तर की ओर बढ़ने वाली होती है। इस प्रकार हीगल ने द्वन्द्ववाद के यूनानी राजनीतिक सिद्धांत को सार्वभौमिक रूप प्रदान किया है। हीगल के अनुसार यह प्रक्रिया जीवन के सभी क्षेत्रों में चलती रहती है। हीगल के अनुसार वाद किसी वस्तु का होना (being) या अस्तित्व को स्पष्ट करता है। प्रतिवाद जो वह नहीं है (non being) को सिद्ध करता है। इस प्रकार वाद में ही प्रतिवाद के बीज निहित होते हैं। जब होना तथा न होना परस्पर मिलते हैं, तो संवाद का जन्म होता है। इस तरह की प्रणाली संसार की सभी वस्तुओं व क्षेत्रों में मिलती है। इस प्रणाली पर संसार का निरंतर विकास हो रहा है।

हीगल का मानना है कि संसार के जड़ व चेतन सभी पदार्थों, सभी सामाजिक संस्थाओं, विचार के क्षेत्रों में तथा अन्य सभी क्षेत्रों में इस प्रक्रिया को देखा जा सकता है। हीगल ने गेहूं के दाने का उदाहरण देते हुए कहा कि दाना एक वाद है। उसको खेत में बोने से उसका अंकुरित होना प्रतिवाद है। पौधे के रूप में विकसित होने की तीसरी दशा संवाद है। यह प्रथम दोनों से उत्कृष्ट है। गेहूं का एक दाना वाद है, और संवाद के रुप में बीसों दाने उत्पन्न हो गये। इसी तरह अंडे में वीर्याणु वाद है। उसमें पाया जाने वाला राजकण प्रतिवाद है। वीर्य तथा राजकण के संयोग से जीव का जन्म होता है। यह अंडे के भीतर भोजन प्राप्त करके पुस्ट होकर चूजे के रूप में अंडे से बाहर आता है, यही संवाद है। हीगल ने परिवार को एक वाद मानते हुए उसे समाज के रूप में विकसित करके राज्य के रूप में सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा दिया है। हीगल के अनुसार परिवार का आधार पारस्परिक प्रेम है। परिवार एक वाद के रूप में मनुष्य की सारी आवश्यकताएं पूरी नहीं कर सकता। इसलिए प्रतिवाद के रूप में समाज की उत्पत्ति होती है। समाज प्रतिस्पर्धा तथा जीवन संघर्ष पर आधारित होता है। जीवन को अच्छा वह सुखमयी बनाने के लिए संवाद के रूप में राज्य का जन्म होता है। इसमें परिवार तथा समाज दोनों के गुण पाए जाते हैं। इसमें प्रेम तथा प्रतिस्पर्धा दोनों के लिए उचित स्थान है। इस आधार पर हीगल जर्मन राष्ट्रवाद के पूर्णत्व को प्रमाणित करते हुए कहता है कि यूनानी राज्य वाद थे, धर्मराज्य उसके प्रतिवाद तथा राष्ट्रीय राज्य उनका संवाद होगा। इस प्रकार जर्मनी राष्ट्र को उसने विश्वात्मा का साकार रूप कहा है।

 

द्वन्द्ववाद की आलोचना

सत्य के अन्वेषण की प्रमुख पद्धति होने के बावजूद भी हीगल के द्वन्द्ववाद की अनेक आधारों पर आलोचना हुई है। उसकी आलोचना के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं –

1) अस्पष्टता – हीगल ने धर्म, दर्शन, अर्थशास्त्र आदि में परिवर्तन का कारण विचार में प्रगति को माना है। विज्ञान और दर्शन में जो भी नए-नए परिवर्तन होते हैं, उनका कारण विचारों में विरोध ही नहीं हो सकता, अन्य कारण भी होते हैं। हीगल ने जिन अवधारणाओं को द्वन्द्ववाद में प्रयोग किया है, वह बड़ी अस्पष्ट हैं। उनके अनेक अर्थ निकलते हैं। उसका प्रत्येक वस्तु के मूल में छिपा अंतर्विरोध का विचार भी स्पष्ट नहीं है। इसलिए कहा जा सकता है कि हीगल का द्वन्द्ववाद अस्पष्ट है।

2) वैज्ञानिकता का अभाव – हीगल ने अपने द्वन्द्ववाद में किसी वस्तु को मनमाने ढंग से वाद और प्रतिवाद माना है। उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। उसने कहा है कि कोई वस्तु एक ही समय में सत्य भी हो सकती है और असत्य भी। यह पद्धति वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ है, क्योंकि इसमें इतिहास के तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर वाद, प्रतिवाद और संवाद के रूप में पेश किया गया है। यदि द्वन्द्ववाद वैज्ञानिकता पर आधारित होता तो हीगल के तर्कों के अलग-अलग अर्थ नहीं निकले होते। हीगल ने जहां राज्य को पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन कहा है, वही मार्क्स ने राज्य को शैतान की संज्ञा दी है। इसकी आधारभूत मान्यता भी गलत सिद्धांत पर टिकी हुई है कि एक बात एक समय पर सत्य और असत्य दोनों हो सकती है। अतः हीगल के द्वन्द्ववाद में वैज्ञानिक शुद्धता का अभाव है।

3) व्यक्ति की इच्छा की उपेक्षा – हीगल ने कहा है कि ऐतिहासिक विकास की गति पूर्व निश्चित है। प्रो. लेकस्टर ने कहा है “हीगल के द्वन्द्ववादी सिद्धांत में व्यक्तिगत इच्छाओं और वरीयताओं को महज एक सनक मान लिया गया है।” हीगल के अनुसार “मानव इतिहास के अभिनेता मनुष्य नहीं, बल्कि विशाल वैयक्तिक शक्तियां (विचार) हैं।” यदि निष्पक्ष व तटस्थ दृष्टि से देखा जाये तो हीगल का यह सिद्धांत इतिहास की पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता है। व्यक्ति की इच्छाएं, अभिलाषा व प्रयास इतिहास की गति बदलने की क्षमता रखते हैं। वैयक्तिक मूल्यों की उपेक्षा करके हीगल ने अपने आपको आलोचना का पात्र बना लिया है।

4) मौलिकता का अभाव – हीगल ने द्वन्द्ववादी सिद्धांत को सुकरात तथा अन्य यूनानी चिंतकों के दर्शन से ग्रहण किया है। उसने उसमें आमूल परिवर्तन करके नया रूप अवश्य देने का प्रयास किया है, लेकिन यह उसका मौलिक विचार नहीं कहा जा सकता है।

5) अतार्किकता – हीगल ने भविष्यवाणी की थी कि वाद, प्रतिवाद और संवाद की प्रक्रिया द्वारा जर्मनी एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में पूर्णता को प्राप्त कर लेगा। तत्पश्चात् ऐतिहासिक विकास का मार्ग रुक जाएगा। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हीगल के तर्क को झूठा साबित कर देती है। सभी राष्ट्रों की आर्थिक निर्भरता में भी पहले की तुलना में अधिक वृद्धि हुई है। अतः उसकी भविष्यवाणी तार्किक दृष्टि से गलत है।

6) अनुभव तत्व की उपेक्षा – हीगल ने तर्क को सबसे ज्यादा महत्व दिया है। उसके अनुसार संसार के समस्त क्रियाकलापों का आधार तर्क ही है। व्यक्तियों और राज्य के अतीत के अनुभव भी मानव इतिहास के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इसलिए हीगल ने अनुभव तत्व की उपेक्षा करने की भारी भूल की है। जस्टिस होमज़ ने कहा है “मनुष्य के सभी क्रियाकलापों में अनुभव तर्क से अधिक महत्वपूर्ण है।”

7) वस्तुनिष्ठता का अभाव – हीगल का द्वन्द्ववाद ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि, यथार्थवाद, नैतिक अपील, धार्मिक रहस्यवाद आदि का विचित्र मिश्रण है। व्यवहार में उसने वास्तविक, आवश्यक, आकस्मिक, स्थाई और अस्थाई आदि शब्दों का मनमाने ढंग से प्रयोग किया है। इसी कारण से उसका द्वन्द्ववाद वस्तुनिष्ठ नहीं है।

8) अत्यधिक एकीकरण पर बल – हीगल ने नैतिक निर्णय और ऐतिहासिक विकास के आकस्मिक नियमों को मिला दिया है। उसने बुद्धि और इच्छा को भी मिला दिया है। उसने कहा कि जर्मनी को राज्य अवश्य बनना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि जर्मनी को ऐसा करना चाहिए, क्योंकि उसके पीछे कारणात्मक शक्तियां काम कर रही हैं। इसलिए इस अनावश्यक व अत्यधिक एकीकरण के कारण उसका द्वन्द्ववाद तर्क की अपेक्षा नैतिक अपील पर ज्यादा जोर देता है।

द्वन्द्ववाद का महत्व 

यद्यपि हीगल के द्वन्द्ववाद की अनेकों आलोचनाएं की गई हैं, किंतु हीगल का यह सिद्धांत महत्वहीन नहीं है। हीगल के द्वन्द्ववाद का अपना विशेष महत्व है। इससे वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को समझने में मदद मिलती है। इससे मानव सभ्यता के विकास के बारे में पता चलता है। हीगल का ऐतिहासिक विकास में उतार-चढ़ाव की बात करना अधिक तर्कसंगत है। इस सिद्धांत से मानव की बौद्धिक क्रियाओं के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है। उसके द्वन्द्ववाद में सार्वभौमिकता का गुण होने के कारण इसे प्रत्येक क्षेत्र में लागू किया जा सकता है। हीगल ने दर्शन और विज्ञान की दूरी पाटने का प्रयास करके ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में एकीकरण का प्रयास किया है। हुगल के द्वन्द्ववादी सिद्धांत को मार्क्स ने उल्टा करके अपना साम्यवादी दर्शन खड़ा किया है, जिससे हीगल को अमरत्व प्राप्त हो गया है। इसलिए यही कहा जा सकता है कि अनेक गंभीर त्रुटियों के बावजूद भी हीगल का द्वन्द्ववाद राजनीतिक चिंतन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और अमूल्य देन है।