द्वितीय विश्व युद्ध : कारण व प्रभाव

 

द्वितीय विश्व युद्ध : पृष्ठभूमि, कारण व प्रभाव

इस शताब्दी के इतिहास में ही नहीं, बल्कि मानव जाति के इतिहास मे भी द्वितीय विश्व युद्ध का विस्फोट एक निर्णायक घटना है। अनेक इतिहासकारों का मानना है कि वास्तव में यह त्रासदी इस अहसास के लिए जरूरी है कि समस्त भूमण्डल के देशों की नियति एक-दूसरे के साथ अनिवार्यत जुडी हुई है। मानव जाति की सांस्कृतिक विरासत के सभी मनुष्य समान रूप से उत्तराधिकारी है और इसे बनाये रखने की जिम्मेदारी उन सभी की है। इस युद्ध के बाद न केवल अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप बदल गया, बल्कि विश्व भर में रहन-सहन और सोचने-समझने के तौर-तरीको मे आमूल चूल परिवर्तन हुए।

 

द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि

आज का अन्तर्राष्ट्रीय विश्व द्वितीय विश्व युद्ध की अग्नि परीक्षा से गुजरा है। मौजदा अन्तर्राष्ट्रीय नैतिक व्यवस्था इस युद्ध के परिणामों से ही निर्धारित हुई है। फिर भी इस बात को ध्यान में रखना उपयोगी है कि प्रथम विश्व युद्ध और उसके बाद के ‘तनावपूर्ण शान्ति के संकट का अन्तराल’ (1919-1939 ) आज भी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धो के उतार-चढ़ाव को प्रभावित करता रहा है। अतः समसामयिक अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धो का अध्ययन विश्लेषण करने के पहले प्रथम विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। जैसा कि यूरोपीय इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् टेविट थॉमसन का मानना है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के होने के लिए सिर्फ द्वितीय विश्व युद्ध के तात्कालिक कारणों को जानना यथेष्ट नही बल्कि प्रथम विश्व युद्ध जनित परिस्थितियों एवं उसके बाद के काल पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।” इनमे से घटनाक्रम को प्रभावित करने वालों में कुछ व्यक्ति और कुछ परिस्थितियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। परन्तु ऐसा नही सोंचा जा सकता कि जो कुछ घटा, वह नियति द्वारा तय था। हां, इतना जरूर सच है कि भविष्य के संघर्ष और संकट के बीज 1919 में बोये जा चुके थे।

 

द्वितीय विश्व युद्ध : प्रमुख घटनाएं

द्वितीय विश्व युद्ध का आरम्भ एक सितम्बर, 1939 को हुआ, जब हिटलर ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया। यह युद्ध लगभग छह वर्ष तक चला। जापान के हिरोशिमा व नागासाकी नगरी पर अणु बम गिराये जाने (छह व नो अगस्त, 1945 ) के बाद उसकी पराजय और आत्मसमर्पण ( 14 अगस्त, 1945) के साथ इसका अन्त आम तौर पर माना जाता है। यदि सूक्ष्म रूप से देखा जाय तो अलग-अलग राष्ट्र अपने हितो को देखते हुए संघर्ष में शामिल हुए और विभिन्न शत्रुओं की पराजय के साथ अलग-अलग रणक्षेत्रो में इसकी समाप्ति एक मोटे काल खंड के भीतर अलग अलग क्षणों मे हुई। कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ इस प्रकार है-7 दिसम्बर, 1941 को पर्ल हार्वर पर जापानी हमले के बाद अमरीका युद्ध में शामिल हुआ, जबकि जून, 1941 मे सोवियत संघ पर जर्मन हमले के बाद सोवियत संघ रणक्षेत्र में कूद चुका था। जून 1940 में फ्रांस ने जर्मनी के सामने समर्पण किया और पासा पलटने के बाद जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के सामने 8 मई, 1945 को समर्पण किया। इस तरह दिसम्बर, 1941 से मई, 1945 तक युद्ध पूरे उफान पर था। मित्र राष्ट्रो (Allied Nations) मे अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ और राष्ट्रवादी चीन थे। ब्रिटेन और फ्रांस के उपनिवेश अपने महाप्रभुओं की जरूरत के अनुसार युद्धरत रहे। जर्मनी द्वारा पराजित यूरोपीय राष्ट्र पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, हालैंड आदि राष्ट्र मित्र राष्ट्रों का संरक्षण ग्रहण करने के बाद एक तरह से इनके सन्धि मित्र और सहयोगी बन गये । धुरी राष्ट्रो (Axis Powers) में नाजी जर्मनी, फासीवादी इटली, जापान मुख्य थे। इनके अनुचर के रूप में तुर्कों आदि या उनके द्वारा अधिग्रहित प्रदेश थे। मसलन जर्मनी ने फ्रांस मे विचि नामक कठपुतली सरकार स्थापित की थी। इसी तरह जापान ने दक्षिण पूर्व एशिया मे इन्डोनेशिया, हिन्द चीन आदि में अपने अनुकूल प्रशासन संगठित किये और अपनी इच्छानुसार उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवादी तत्वों को समर्थन-प्रोत्साहन देकर विश्व युद्ध में अपने पक्ष में भाग लेने के लिए विवश किया। आजाद हिन्द फौज, सुकार्णों, हट्टा आदि की जोड़ी इसी का उदाहरण है।

 

द्वितीय विश्व युद्ध के कारण

1) तुष्टीकरण की नीति : अधिकांश जनता आज इस गलतफहमी की शिकार है कि द्वितीय विश्व युद्ध के लिए सिर्फ हिटलर और मुमोलिनी जैसे सरफिरे तानाशाह जिम्मेदार हैं। एक हद तक इस धारणा का पोषण विजय के बाद विजेता के गुणगान करने वाले इतिहास लेखन ने दिया है। यह प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि क्यो समय रहते हिटलर और मुसोलिनी जैसे राक्षसों’ का उन्मूलन करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया ? ब्रिटेन और कुछ हद तक उसके सहयोगी मित्र राष्ट्र फ्रांस और बाद में रूस ने भी तुष्टीकरण की नीति के पक्षधर रहे । इसका सबसे अच्छा उदाहरण म्यूनिष समझौता है। जब चेंबरलेन 1936 में हिटलर से मिलने म्यूनिष पहुंचे तो उन्होने अपनी वापसी पर बहुत गर्व के साथ यह घोषणा की कि ‘मैं सम्मान के साथ शान्ति की व्यवस्था करने आया हूँ।’ कुछ ही समय बाद इस घोषणा का दोगलापन जगजाहिर हो गया तथा न सम्मान बचा और न ही शान्ति।

जब आरम्भ मे जर्मनी ने युद्ध का मुआवजा देना बन्द किया तो ब्रिटेन की तरह फ्रांस ने भी कोई जवाबी कदम नहीं उठाया। इससे जर्मनी ने यही समझा कि धौंस-धमकी से फ्रांस को चुप कराया जा सकता है। सोवियत संघ का आचरण भी भिन्न नहीं था।

2) नाजीवाद और फांसीवाद का उदय : नाजीवाद व फांसीवाद के आविर्भाव के लिए सिर्फ तुष्टीकरण की नीति ही जिम्मेदार नहीं थी, और न सिर्फ इतना कहने से काम चल सकता है कि जर्मनी का मूल संस्कार ही लड़ाकू व विस्तारवादी है, जिसके साथ अन्य देशो का टकराव अवश्यंभावी है। जर्मनी की ऐसी हिंसक छवि के लिए नाजियों का नृशंस, अमानुषिक आचरण एक सीमा तक ही उत्तरदायी है। नीत्शे और बिस्मार्क से लेकर विलियम फिसर के जरिये एडोल्फ हिटलर तक पहुंचना सहज अवश्य है, परन्तु सही नहीं। वास्तव में फासीवाद और नाजीवाद दोनो ही उग्र राष्ट्रवाद और भीड़तन्त्र के सन्निपात से जन्मे थे। इस तरह की प्रवृत्तियाँ यूरोप में अनेक देशों में सर उठा रही थी । इस शताब्दी के आरम्भ मे ‘बोअर वार’ के दौरान उग्र राष्ट्रवाद के लिए अंग्रेजी मे एक शब्द तक गढ़ा गया— ‘जिगोइज्म’। ओस्वल्ड स्पेंगलर तथा औरतेगा इगासे जैसे विद्वानो को भीडतन्त्र का खौफ द्वितीय विश्व युद्ध के वर्षों पहले सताने लगा था। इस प्रकार नाजीवाद व फासीवाद द्वितीय विश्व युद्ध के विस्फोट का कारण बना।

3. वर्साय सन्धि के प्रति असन्तोष : वर्साय सन्धि मूलतः अन्यायपूर्ण थी और उसने जर्मनी जैसे पराजित राष्ट्रों पर कमरतोड़ आर्थिक मुआवजो का बोझ लादा था। परिणामस्वरूप ‘वाइमार’ गणतन्त्र ( Weimar Republic ) की असफलता पूर्व निश्चित हो गयी। हिटलर जैसे कुटिल राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्रीय सम्मान की दुहाई दे सकना न केवल सम्भव बल्कि विश्वसनीय बन सका । जब हिटलर अपने देशवासियो को कुर्बानी के लिए ललकारता तो वे न केवल आत्म-सम्मान एवं राष्ट्रीय गौरव के लिए, बल्कि रोजमर्रा की जिन्दगी चैन से बसर करने के लिए कमर कस रहे होते । राष्ट्र संघ ने जर्मनी पर तो तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाये परन्तु इसकी कोई व्यवस्था नही की कि जन-आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आर्थिक संसाधन उसे कैसे प्राप्त होंगे। शहरों मे घोर अभाव और दरिद्रता ने असामाजिक तत्वों की हिंसक टोलियों को बढ़ावा दिया और इन्हें संगठित कर अपने विरोधियो के सफाये का अवसर हिटलर को दिया । अतः द्वितीय विश्व युद्ध के लिए वर्साय सन्धि भी जिम्मेदार रही है।

4) राष्ट्र संघ की असफलता : प्रथम विश्व युद्ध के बाद शान्ति की पुनर्स्थापना इस आश्वासन के साथ हुई की राष्ट्र संघ सामूहिक सुरक्षा का प्रबन्ध करेगा, युद्ध का उन्मूलन करेगा और निःशस्त्रीकरण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहेगा। इनमें से कोई भी आशा पूरी नहीं हुई। निराश एवं खिन्न फ्रांस ने स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए शस्त्रीकरण का रास्ता चुना, जिसने हिटलर द्वारा सत्ता ग्रहण करने के बाद शस्त्रीकरण की होड़ और तेज की। राष्ट्र संघ की स्थापना अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन की प्रेरणा और सद्प्रयत्नों से हुई थी। बाद मे स्वयं अमरीका इस संगठन का सदस्य नहीं बना। प्रथम विश्व युद्ध का परिणाम अमरीका की सैनिक भागीदारी से निर्णायक ढंग से प्रभावित हुआ था। अमरीकी शक्ति तथा साधनों के अभाव मे राष्ट्र संघ एक आदर्शवादी सपना भर रह गया । इथियोपिया मे इतालवी हस्तक्षेप, मंचूरिया और चीन पर जापानी आक्रमण आदि संकटो के समाधान में राष्ट्र संघ बुरी तरह असफल रहा। इसने नाजीवादी जर्मनी और फासीवादी इटली को यह सोचने का मौका दिया कि उन्हे अनुशासित करने वाली कोई सस्था नही और सैनिक बल ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एकमात्र यथार्थ है। इस तरह राष्ट्र संघ असफल होने पर द्वितीय विश्व युद्ध भड़का |

5) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संकट : सन् 1929 में विश्व में एक महान आर्थिक संकट आया, जिसका प्रत्येक देश की आर्थिक व्यवस्था पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बुरा प्रभाव पड़ा। इस आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप राष्ट्रों में निःशास्त्रीकरण की भावना समाप्त हो गयी और वे शस्त्रों की होड़ में लग गये। जर्मनी में घोर आर्थिक संकट छा गया, जिसके कारण लगभग 7 लाख व्यक्ति बेघर हो गये। इस आर्थिक संकट ने जर्मनी में नाजीवाद के उत्कर्ष में सहायता प्रदान की। इस आर्थिक संकट का लाभ उठाकर ही जापान ने सन् 1931 में मंचूरिया पर चढ़ाई कर दी और सन् 1935 में अबीसीनिया पर इटली का हमला भी इसी आर्थिक संकट का एक अप्रत्यक्ष परिणाम था।

6) जापान मे सैन्यवाद का विकास : द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों को जितना संकट नाजी जर्मनी और फासीवादी इटली से था, उतना ही पूर्वी प्रशान्त मोर्चे पर जापान से। यह गलत भी नहीं था। द्वितीय विश्व युद्ध को विश्व युद्ध में परिवर्तित पर्ल हार्बर नामक अमरीकी नौसैनिक अड्डे पर जापानी हमले ने ही किया। तब तक अमरीका तटस्थ था और सोवियत संघ के युद्ध क्षेत्र मे उतर आने के बाद भी यह संग्राम यूरोपीय ही था । जापानी सैनिक अभियानों ने ही दक्षिण-पूर्व एशिया में फ्रांसीसी व ड़च साम्राज्य का सफाया किया और भारत में अंग्रेजी आधिपत्य को विपदा मे डाला। द्वितीय विश्व युद्ध के कारणों मे जापानी सैन्यवाद को नाजीवाद और फासीवाद से कम महत्वपूर्ण नही समझा जा सकता।

7) दो प्रतिद्वन्द्वी सैनिक गुटों का उदय : प्रथम विश्व युद्ध से पहले समूचा विश्व दो विरोधी सैनिक गुटों में विभाजित हो गया था, उसी प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व भी सम्पूर्ण विश्व दो परस्पर शत्रु सैनिक खेमों में बँट गया । एक तरफ जर्मनी, इटली और जापान जैसे कभी सन्तुष्ट न होने वाले राष्ट्रों की रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी थी, तो दूसरी तरफ ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत रूस और अमरीका जैसे मित्र राष्ट्रों ने मिलकर एक सुदृढ़ सन्धि संगठन स्थापित कर लिया। जब हिटलर के नेतृत्व में जर्मन सेना ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया तो ब्रिटेन और फ्रांस ने पोलैण्ड को समर्थन दिया और द्वितीय महायुद्ध भड़क उठा।

8) पोलैण्ड पर जर्मनी का आक्रमण : 1939 तक हिटलर की साम्राज्यवादी नीतियां अपने चरम पर थी। इंग्लैंड एवं फ्रांस ने हिटलर की बढ़ती हुई मांगों एवं विस्तार नीति का विरोध करने का निश्चय किया । 31 मार्च, 1939 को इंग्लैंड तथा फ्रांस ने घोषणा की कि यदि जर्मनी ने आक्रमण द्वारा पोलैण्ड की स्वतन्त्रता नष्ट करने की चेष्टा की तो वे उसकी रक्षा करेंगे। 1939 की अप्रैल में हिटलर ने जर्मन पोलैण्ड सन्धि को रद्द करते हुए घोषणा की कि डेन्जिग जर्मनी को लौटाया जाये एवं उसे पोलिश गलियारे में होकर सड़क और रेल लाइन निकालने का अधिकार दिया जाये। पोलैण्ड ने जर्मन मांगों को अस्वीकार कर दिया। हिटलर पोलैण्ड के उत्तर से सन्तुष्ट नहीं था परन्तु उसने उस समय उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की।

हिटलर ने कूटनीतिक तैयारियों के पश्चात् पोलैण्ड से मांग की कि वह डेन्डिंग तथा गलियारे की समस्या शीघ्रातिशीघ्र सुलझाये। दोनों देशों के राजदूतों के बीच बातचीत के लिए समय एवं स्थान निश्चित किया गया। जर्मनी ने इंग्लैंड को सूचित किया कि उसने दो दिन तक पोलैण्ड के राजदूत के लिए इन्तजार किया परन्तु वह नहीं आया, अतएव पोलैण्ड ने उसके प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया है। इससे पूर्व कि दोनों के बीच समझौते की बातचीत पुनः आरम्भ हो जर्मनी के हवाई जहाजों ने 1 सितम्बर, 1939 को पोलैण्ड के नगरों पर बमबारी की। इंगलैण्ड तथा फ्रांस ने हिटलर को अन्तिम चेतावनी दी और जर्मनी से कोई उत्तर न मिलने पर दो दिन बाद 3 सितम्बर, 1939 को दोनों देशों ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। इस घोषणा के साथ द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हुआ।

 

द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम

1) यूरोपियन प्रभुत्व का अन्त : सन् 1492 में कोलम्बस द्वारा अमरीका की खोज से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक के काल को विश्व के इतिहास का यूरोपियन काल कहा जा सकता है। इस युग में यूरोप में अभूतपूर्व वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति हुई। यूरोपियन राष्ट्रों ने विशाल साम्राज्यों की स्थापना की। जर्मनी, इटली, ब्रिटेन और फ्रांस की गणना महान शक्तियों में की जाती थी। किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध ने यूरोपियन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया। युद्ध की समाप्ति के बाद इटली, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन आदि राष्ट्र द्वितीय श्रेणी की शक्तियां (Second rate power) बन कर रह गयीं। विश्व का नेतृत्व यूरोप के हाथ से निकल कर संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ के हाथों में आ गया।

2) परमाणु युग का सूत्रपात : संयुक्त राज्य अमरीका के एक वायुयान बी29 ने 6 अगस्त, 1945 को हिरोशिमा पर अणुबम डाला। अणुबम के विस्फोट से हिरोशिमा की 90 प्रतिशत इमारतें नष्ट हो गयी एवं लगभग 7,50,000 मनुष्य मारे गये। इस महासंहार के साथ परमाणु युग का सूत्रपात हुआ। विश्व के सभी वैज्ञानिकों ने अनुभव किया कि अणु-शक्ति के कारण मनुष्य को अतिमानुषी शक्ति मिल गयी है। एलबर्ट स्विट्जर ने 1954 में नोबल पुरस्कार ‘प्राप्त करते समय कहा था, “मानव अणु शक्ति के कारण अतिमानुषी बन गया है, परन्तु उसकी बुद्धि उस अतिमानुषी मान तक उन्नत नहीं हुई, जिस मान तक उसे शक्ति प्राप्त हुई है।” इससे स्पष्ट है कि परमाणु युग के साथ मानव सभ्यता पर विनाश की काली घटा छा गयी। सभ्यता का भविष्य ऐसे विवेकहीन मनुष्यों के हाथों में चला गया जिनमें हिरोशिमा का दृश्य दोहराने के लिए किसी प्रकार की झिझक नहीं है।

3) एशिया एवं अफ्रीका का जागरण तथा सम्प्रभु राज्यों की संख्या में वृद्धि : अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन लाने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय जगत में राज्यों की संख्या पहले से अब बहुत बढ़ गयी है। उपनिवेशों के जल्दी जल्दी आजाद हो जाने से आज और बहुत से प्रभुत्व सम्पन्न राज्य अस्तित्व में आकर स्वतन्त्र राष्ट्रों की बिरादरी में शामिल हो गये हैं। इन राज्यों ने अब स्वयं अपने भाग्य-विधाता बनकर विश्व इतिहास में एक नये युग की शुरूआत की है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नये राज्यों के उदय की प्रतिक्रिया अत्यधिक तीव्र गति से चली। सन् 1960 में सिर्फ एक महीने में केवल अफ्रीका महाद्वीप के ही सोलह नये राज्य संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बने।

द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीकी राष्ट्रों में स्वतन्त्रता के सूर्य का उदय हुआ ‘एशिया एशिया वालों के लिए’ और ‘अफ्रीका अफ्रीकियों के लिए’ जैसे नारे यह जाहिर करते हैं कि विश्व के मामलों के एकमात्र कर्ता-धर्ता के रूप में यूरोप का महत्व बहुत कुछ घट गया है। नये राज्यों का उदय हो जाने से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का रूप अब सचमुच अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है।

4) साम्यवाद का विस्तार : इटली तथा जर्मनी साम्यवाद के कट्टर शत्रु थे, परन्तु उनकी पराजय के पश्चात् मित्र राष्ट्रों में इतनी क्षमता नहीं रही कि वे साम्यवाद को पूर्वी यूरोप अथवा एशिया में रोक सकें। ज्यों-ज्यों जर्मनी पूर्वी मोर्चे पर हारता गया त्यों-त्यों पूर्वी यूरोप में साम्यवाद घुसता गया। बर्लिन के पतन तक सोवियत रूस की सेना ने पूर्वी यूरोप के समस्त देशों पर अधिकार कर लिया एवं वहाँ साम्यवादी सरकारों की स्थापना की।

चीन में साम्यवादियों ने च्यांग-कोई-शेक के विरुद्ध संघर्ष की गति बढ़ायी एवं उसे पराजित कर चीन में साम्यवादी सरकार की स्थापना की। साम्यवादी केवल इतने से ही सन्तुष्ट नहीं थे। उन्होंने एशिया के पिछड़े हुए देशों में साम्यवाद का प्रचार प्रारम्भ किया जिसके परिणामस्वरूप लगभग प्रत्येक देश में साम्यवादियों के अड्डे स्थापित हुए। इन अड्डों से साम्यवादियों ने जनता को प्रभावित करना आरम्भ किया। जिन्होंने साम्यवादी सिद्धान्त स्वीकार किये वे अपने देश से साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए जनतन्त्रवादियों से संघर्ष करने लगे। इस प्रकार पूर्वी एशिया के देशों में साम्यवाद और जनतन्त्र के बीच संघर्ष छिड़ा।

5) सैनिक गुटबन्दी : साम्यवादियों का बढ़ता हुआ प्रभाव एवं रूस की बढ़ती हुई शक्ति ने पश्चिमी राष्ट्रों को गहरी चिन्ता में डाल दिया था। वे रूस एवं अन्य साम्यवादी देशों के विरुद्ध सैनिक गुटों का निर्माण करने लगे, जिससे संकट के समय सैनिक गुट के सदस्य संयुक्त रूप से साम्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कर सकें अथवा साम्यवादियों के प्रभाव का विस्तार रोक सकें।

कोरिया युद्ध के समय संयुक्त राज्य अमरीका के राजनीतिज्ञों ने अनुभव किया कि साम्यवाद के विरुद्ध सामूहिक सुरक्षा के लिए सैनिक संगठनों का निर्माण परम आवश्यक है। 1949 में नाटो, 1954 में सीटो, वारसा पैक्ट, सेण्टो आदि सैनिक सन्धियाँ अस्तित्व में आयीं। सैनिक संगठनों के निर्माण से स्पष्ट था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सैनिक प्रवृत्तियों का ह्रास नहीं हुआ था। ये सन्धियाँ शान्ति स्थापना के लिए की गयी थीं, परन्तु इनमें युद्ध की उत्तेजना छिपी हुई है।

6) शीत युद्ध : जर्मनी और जापान की पराजय के पश्चात् गोलियों और बमों का युद्ध युद्ध समाप्त हुआ परन्तु साम्यवादी एवं पूँजीवादी देशों में एक नये ढंग का युद्ध शान्ति-युद्ध आरम्भ हुआ।

युद्ध के समय सोवियत रूस तथा पश्चिमी राष्ट्रों के बीच जो मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ था वह अस्थायी एवं कृत्रिम था क्योंकि साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता था। अतएव युद्ध समाप्ति के बाद सारा संसार दो विरोधी गुटों में बँट गया। पूँजीवादी गुट का नेता संयुक्त राज्य अमरीका और साम्यवादी गुट का नेता सोवियत रूस बना। दोनों गुटों में विरोध बढ़ता गया। आरम्भ में यह विरोध साधारण सम्मेलनों में दिखायी दिया परन्तु यह बढ़ते बढ़ते संयुक्त राष्ट्र तक पहुँच गया। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन दोनों के संघर्ष का अखाड़ा बन गया। आज विश्व दो सशस्त्र शिविरों में विभाजित है। दोनों शिविरों के मध्य एक नवीन प्रकार के सम्बन्धों का विकास हुआ जो ‘शीत युद्ध’ के नाम से प्रख्यात है।

7) गुट निरपेक्षता : द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त जब नये सम्प्रभु राष्ट्रों का जन्म हुआ तो उनमें से अधिकांश ने अपने आपको शीत युद्ध की खींचतान से निरपेक्ष रखने का निर्णय लिया। इस क्षेत्र में भारत ने मार्गदर्शन किया और गुट निरपेक्षता की आवाज बुलन्द की। भारत के पहले प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 7 सितम्बर, 1946 में एक रेडियो प्रसारण में कहा, ‘जहाँ तक सम्भव हो हमें परस्पर विरोधी गुटों की राजनीति से दूर रहना चाहिए जिसके कारण पहले दो विश्व युद्ध हो चुके हैं।’ उन्होंने इसे भारत की विदेश नीति का ठोस आधार बनाया और गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने वाले एशियाई और अफ्रीकी देशों को एक अन्तर्राष्ट्रीय बल बनाने का आह्वान किया। गुट निरपेक्षता के इस चौखटे में धीरे-धीरे नव स्वाधीन देश शामिल होने लगे। आज लगभग 120 देश गुट निरपेक्ष आन्दोलन से जुड़े हुए हैं।

8) साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का अन्त : साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी शक्तियाँ इस युद्ध में स्वयं संकट में पड़ गयीं। यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियाँ तो हार ही गयीं और उनके हारते ही उपनिवेशों में राष्ट्रीय सरकारें स्थापित हो गयीं। अफ्रीका और एशिया में जहाँ अब तक विश्वास था कि यूरोपीय शक्तियाँ अजेय हैं, और उनसे उपनिवेश स्वतन्त्र नहीं हो सकते, द्वितीय महायुद्ध ने यह विश्वास समाप्त कर दिया। युद्ध के बाद वे स्वयं सैनिक और आर्थिक दृष्टि से इतने कमजोर थे कि साम्राज्य को सम्भालने में अपने आपको असमर्थ पाने लगे। रूसी साम्यवादी विचारधारा से भी साम्राज्य एवं उपनिवेशवाद को क्षति पहुँची। अब उपनिवेशो में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना बहुत जाग्रत हो चुकी थी जिसे दबाना उनके लिए असम्भव था।

9) वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति : आधुनिक युग वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति का युग कहलाता है। इसका प्रभाव युद्ध के स्वरूप पर तो पड़ा ही है, युद्ध एक सम्पूर्ण युद्ध (Total war) बन गया है, पर इसके साथ ही शक्ति की परिभाषा, स्वरूप और निर्माणक तत्व भी प्रभावित हुए हैं। परम्परागत तीन प्रकार की शक्तियाँ थीं; छोटी, मध्य श्रेणी की और महाशक्तियाँ| सन् 1946 के बाद एक श्रेणी और बन गयी जिसे ‘सुपर पावर’ (Super power) कहा जाने लगा। विज्ञान और तकनीकी प्रगति के कारण सारा विश्व एक इकाई बन गया और ‘अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को जन्म मिला। इससे अन्तर्राष्ट्रीयता को भी प्रोत्साहन मिला ।