भीमराव अंबेडकर की जीवनी

 

 

 Biography of Bhimrao Ambedkar (भीमराव अंबेडकर की जीवनी)

 

भीमराव को अस्पृश्य मानी जाने वाली जाति में पैदा होने के कारण उन्हें जीवन भर अनेक कष्टों को झेलना पड़ा। उनका जन्म इंदौर के निकट महू छावनी में पिता भीम सकपाल के यहां 14 अप्रैल सन् 1891 को हुआ। पिता कबीर पंथ के अनुयाई थे, अतः प्रारंभ से ही वे जाति प्रथा से घृणा करते थे। उन्होंने सन् 1907 में हाई स्कूल परीक्षा सातारा में रहकर प्राप्त की। उसके बाद उन्हें मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में पढ़ने का अवसर मिला। बड़ौदा के महाराजा गायकवाड ने उन्हें छात्रवृति देकर सन् 1913 में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु भेजा जहां प्रोफेसर सैलामैन जैसे अर्थशास्त्री के संपर्क में रहते हुए सन् 1915 में अर्थशास्त्र में m.a. किया। सन् 1916 में उन्होंने आगे अध्ययन हेतु विश्व विख्यात ‘लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलीटिकल साइंस’ संस्था में प्रवेश लिया, किंतु अनुबंध के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर बड़ौदा राज्य में मिलिट्री सचिव के पद पर कार्य करना पड़ा। 1920 में वे पुनः लंदन गए जहां उन्होंने मास्टर आफ साइंस, पीएचडी, बार एट लाॅ आदि उपाधियां प्राप्त की।

1923 में भारत लौटकर अंबेडकर ने वकालत तथा अछूतों और गरीबों की सेवा एक साथ प्रारंभ की। 1927 में उन्होंने मुंबई में ‘बहिष्कृत भारत’ नामक पाक्षिक पत्र निकाला। 1930 में अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ के अध्यक्ष बने तथा वे 1930-31 में दलितों के प्रतिनिधि बनकर लंदन में आयोजित प्रथम एवं द्वितीय गोलमेज परिषद में भाग लेने गए। वहां उन्होंने अछूतों को हिंदू समाज से पृथक प्रतिनिधित्व दिलाने में सफलता प्राप्त की। इस मामले में उनका गांधी जी से टकराव हुआ। जब 1932 में डॉक्टर अंबेडकर एवं महात्मा गांधी दोनों भारत लौट कर आए तो उनका भारत में शानदार तरीके से स्वागत किया गया। देश की लगभग 100 संस्थाओं द्वारा डॉक्टर अंबेडकर को मान पत्र देने के लिए जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में मौलाना शौकत अली भी थे। परेल मुंबई में आम सभा के दौरान डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था “मुझे कांग्रेसी लोग देशद्रोही कहते हैं क्योंकि मैंने गांधी का विरोध किया। मैं इस आरोप से कतई विचलित नहीं हूं। यह निराधार झूठा तथा द्वेषपूर्ण है। यह दुनिया भर के लिए बड़े आश्चर्य की बात थी कि स्वयं गांधी ने आपकी दासता की जंजीरों को तोड़ने का तगड़ा विरोध किया। मुझे विश्वास है कि हिंदुओं की भावी पीढ़ियां जब गोलमेज परिषद के इतिहास का अध्ययन करेंगे तो मेरी सेवाओं की प्रशंसा करेंगे।” उन्होंने 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की और दलितों, मजदूरों एवं किसानों की मांगों के लिए संघर्ष किया। इस पार्टी ने 1937 के चुनावों में अनुसूचितों के लिए सुरक्षित 15 में से 13 तथा दो सामान्य सीट जीते। 7 अगस्त 1942 को उन्हें गवर्नमेंट जनरल की कार्यकारिणी परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। अपनी पुरानी पार्टी को उन्होंने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ में बदल दिया। उनकी प्रतिभा को देखकर उन्हें 1946 में संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। यहीं उन्हें भारतीय संविधान को आधुनिकता, प्रगति तथा लोकतंत्र के सांचे में ढालने का अवसर प्राप्त हुआ। संविधान के प्रारूप के दूसरे वाचन के समय डॉक्टर अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में कहा “संविधान सभा में मैं क्यों आया? केवल दलित वर्गों के हितों की रक्षा करने के लिए। इससे अधिक और मेरी कोई आकांक्षा नहीं थी। यहां आने पर मुझे इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी, इसकी मुझे कोई कल्पना तक नहीं थी। संविधान सभा ने जब मुझे प्रारूप समिति में नियुक्त किया, तब मुझे आश्चर्य हुआ ही, परंतु जब प्रारूप समिति ने मुझे अपना अध्यक्ष चुना, तो मुझे आश्चर्य का झटका सा लगा। संविधान सभा की प्रारूप समिति ने मुझ पर इतना विश्वास करके मुझसे यह काम संपन्न करवाया, उसके लिए मैं उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूं।” इससे आगे उन्होंने कहा कि “मुझे इस बात की बड़ी चिंता है कि भारत में पहली अपनी स्वतंत्रता ही केवल नहीं कोयी बल्कि अपने ही लोगों के विश्वास घात और बदमाशी से खोयी गई थी। देश एक समय स्वतंत्र था, परंतु जो देश एक बार अपनी स्वतंत्रता खो बैठा, दूसरी बार भी खो सकता है। क्या इतिहास अपने को दोहरायेगा। इस बात से मेरा मन चिंता ग्रस्त है। जातियों और पंथों के रूप में अपने पुराने शत्रुओं के अलावा हमारे देश में अनेक दल हैं, जो विरोधी विचारों तथा मार्गों का पोषण करते हैं। इसलिए संकुचित पथ या पक्ष को प्रधानता दी गई तो देश एक बार फिर मुसीबतों में फंस जाएगा। अतः हमें दृढ़ता पूर्वक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा रक्त की अंतिम बूंद तक करनी चाहिए।”

डॉक्टर अंबेडकर ने स्वयं में व्यक्त किए गए इस विश्वास को पूर्ण करके दिखाया। 3 अगस्त 1949 को उनको भारत सरकार का विधि मंत्री बनाया गया। इस रूप में हिंदू समाज के सुधार हेतु उन्होंने हिंदू कोड अधिनियम पारित कराने के प्रयास किए जिनके विषय में मतभेद होने पर डॉक्टर अंबेडकर ने 27 सितंबर 1951 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। हिंदू धर्म के साथ अपने स्वाभिमान का तालमेल न बैठता देख डॉक्टर अंबेडकर ने अपने 5 लाख अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। 6 दिसंबर 1956 को उनका देहावसान हो गया।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *