बहुलवाद

संप्रभुता की एकलवादी धारणा के विरुद्ध जिस विचारधारा का उदय हुआ, उसे हम राजनीतिक बहुलवाद या बहुसमुदायवाद कहते हैं। इस प्रकार बहुलवाद को संप्रभुता की अद्वैतवादी धारणा के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है जो यद्यपि राज्य के अस्तित्व को बनाये रखना चाहती है, किन्तु राज्य की संप्रभुता का अन्त करना आवश्यक मानती है।

बहुलवादी विचारधारा के अनुसार राजसत्ता सम्प्रभु और निरंकुश नहीं है। समाज में विद्यमान अन्य अनेक समुदायों का अस्तित्व राजसत्ता को सीमित कर देता है। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए केवल राज्य की ही सदस्यता स्वीकार नहीं करता, वरन् राज्य के साथ-साथ दूसरे अनेक समुदायों और संघों की सदस्यता भी स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में एकमात्र राज्य को सम्पूर्ण सत्ता प्रदान नहीं की जा सकती है। विद्वान हेसियो (Hasio) ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “बहुलवादी राज्य एक ऐसा राज्य है, जिसमें सत्ता का केवल एक ही स्रोत नहीं है, यह विभिन्न क्षेत्रों में विभाजनीय है और इसे विभाजित किया जाना चाहिए।”

प्रमुख बहुलवादी विचारक : अनेक लेखकों और विचारकों द्वारा बहुलवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया गया है, जिनमें गियर्क, मैटलैण्ड, फिगिस, डिग्विट, क्रेव, पाल बंकर, ए. डी. लिण्डले, डरखैम, मिस फॉलेट, अर्नेस्ट बार्कर, जी. डी. एच. कोल और हैराल्ड लास्की का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है।

 

बहुलवाद की प्रमुख मान्यतायें(सिद्धांत)

1) राज्य केवल एक समुदाय है : बहुलवादी राज्य को सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा नैतिक संस्था के रूप में स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार समाज की वर्तमान स्थिति और रचना के आधार पर राज्य अन्य समुदायों की भाँति ही एक समुदाय के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मानवीय जीवन की आवश्यकताएँ बहुमुखी होती हैं और राज्य मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। इसी के कारण राज्य के अतिरिक्त अन्य समुदायों का भी उपयोगी अस्तित्व है। राज्य का कार्य मुख्यतया जीवन के राजनीतिक पहलू से सम्बन्धित है और बहुलवादियों के अनुसार उसे अपने ही क्षेत्र तक सीमित रहना चाहिए, जिससे अन्य समुदाय स्वतन्त्र रूप से व्यक्ति के जीवन के सभी पहलुओं का यथेष्ठ विकास कर सकें।

2) बहुलवादी राज्य और समाज में अन्तर करते हैं : आदर्शवादियों की भाँति बहुलवादी राज्य और समाज को एक नहीं मानते हैं वरन् उन्हें विभिन्न इकाइयों के रूप में स्वीकार करते हैं। बहुलवाद राज्य को अन्य समुदायों के समान ही एक समुदाय मानता है और समाज को राज्य की तुलना में बहुत अधिक व्यापक संगठन बताता है। राज्य समाज का एक ऐसा अंगमात्र है जो उद्देश्य और कार्यक्षेत्र की दृष्टि से समाज का सहगामी नहीं हो सकता।

3) बहुलवादी नियन्त्रित राजसत्ता में विश्वास करते हैं : बहुलवाद असीमित सम्प्रभुता का खण्डन करता है और आन्तरिक व बाह्य दोनों ही क्षेत्रों में सम्प्रभुता को सीमित मानता है। आन्तरिक क्षेत्र में राज्य की शक्ति स्वयं अपनी प्रकृति तथा नागरिकों एवं समुदायों के अधिकारों से सीमित होती है तथा बाहरी क्षेत्र में राज्य की शक्ति अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा अन्य राष्ट्रों के अधिकारों से सीमित है। इस प्रकार बहुलवाद आन्तरिक और बाहरी दोनों ही क्षेत्रों में राज्य की निरंकुश शक्ति का विरोधी है।

4) बहुलवाद के अनुसार कानून राज्य से स्वतन्त्र और उच्च है : बहुलवादी सम्प्रभुता के परम्परागत प्रतिपादकों के विपरीत कानून को राज्य से स्वतन्त्र और उच्च मानते हैं। इस सम्बन्ध में फ्रांसीसी विचारक डिग्विट और डच विचारक क्रैव के विचार उल्लेखनीय हैं। डिग्विट (Dugvit) के अनुसार, ‘विधि राजनीतिक संगठन से स्वतन्त्र, उससे श्रेष्ठ और पूर्वकालिक होती है। विधि के बिना सामाजिक एकता या संगठन या मनुष्यों का एक-दूसरे पर निर्भर करना सम्भव नहीं है। राज्य का व्यक्तित्व एक निरी कल्पना मात्र है। विधि राज्य को सीमित करती है, राज्य विधि को सीमित नहीं करता।’ क्रैब ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं।

5) बहुलवाद विकेन्द्रीकरण में विश्वास करता है : बहुलवाद आदर्शवादी दर्शन की भाँति केन्द्रित राज्य में विश्वास नहीं करता है वरन् यह विकेन्द्रीकरण को ही राज्य की वास्तविक उपयोगिता का आधार मानता है। बहुलवाद के अनुसार, स्थानीय समस्याएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है और इन स्थानीय समस्याओं का समाधान शक्ति के केन्द्रीकरण की पद्धति से नहीं किया जा सकता है। बहुलवादियों के विचार से राज्य को चाहिए कि अपनी केन्द्रित सत्ता को व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के आधार पर विकेन्द्रित करके अन्य समुदायों में विभाजित कर दे और इस प्रकार एक संघात्मक सामाजिक संगठन की स्थापना की जाये।

6) बहुलवाद राज्य के अस्तित्व का विरोधी नहीं है : बहुलवादी राज्य की निरंकुश सत्ता का विरोध तो करते हैं, किन्तु अराजकतावाद या साम्यवाद की भाँति वे उसको समूल नष्ट करने के पक्ष में नहीं हैं। राष्ट्र का अन्त करने के स्थान पर ये राज्य की शक्तियों को सीमित करना चाहते हैं। बहुलवादियों के अनुसार सम्प्रभुता का अद्वैतवादी(एकलवाद) सिद्धान्त ‘कोरी मूर्खता’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। एक बहुलवादी समाज के राज्य का स्वरूप तथा महत्व वैसा ही होगा, जैसा कि अन्य संघों तथा संस्थाओं का। बहुलवादी अन्य संघों की अपेक्षा राज्य को प्राथमिकता देने के लिए तो तैयार हैं, क्योंकि राज्य के द्वारा संघों के पारस्परिक विवाद को सुलझाने के लिए मध्यस्थ के रूप में कार्य किया जायेगा, किन्तु वे राज्य को उस उग्र तथा निरंकुश रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, जिसका प्रतिपादन ‘एकलवादी विचारकों’ के द्वारा किया गया है।

7) बहुलवाद एक जनतन्त्रात्मक विचारधारा है : बहुलवाद राज्य के वर्तमान रूप का विरोधी होने पर भी जनतन्त्रात्मक प्रणाली का विरोधी नहीं है। बहुलवाद अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कभी भी हिंसात्मक प्रणाली का प्रयोग स्वीकार नहीं करता है। आरम्भ से लेकर अन्त तक उसका विश्वास व्यावसायिक प्रतिनिधित्व तथा गुप्त मतदान में है। वास्तव में, बहुलवाद का उद्देश्य तो सर्वाधिकारवादी राज्य के स्थान पर एक ऐसे जनतन्त्रात्मक राज्य की स्थापना करना है, जिसमें शासन व्यवस्था का संगठन नीचे से ऊपर की ओर हो। प्रभुसत्ता के अन्य संघों में समान वितरण को वे जनतन्त्रात्मक प्रणाली का प्रतीक मानते हैं।

8) बहुलवाद व्यावसायिक प्रतिनिधित्व में विश्वास करता है : बहुलवादी विचारक जी. डी. एच. कोल प्रजातन्त्र में व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त का विशेष समर्थक हैं। बहुलवादी प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की पद्धति को अनुचित और दोषपूर्ण मानते हैं, क्योंकि क्षेत्र के आधार पर चुने गये व्यक्ति वास्तविक रूप में प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिनिधित्व की यही पद्धति उचित कही जा सकती है, जिसका आधार व्यवसाय हो। एक कृषक के हित का प्रतिनिधित्व उसके पास रहने वाला वकील अच्छे प्रकार से नहीं कर सकता जितना कि दूर स्थित क्षेत्र का निवासी एक कृषक, जो उसकी कठिनाइयों को समझता है। इसी कारण बहुलवादियों के अनुसार चुनाव क्षेत्र व्यवसाय के आधार पर ही निश्चित किये जाने चाहिए।

 

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बहुलवाद की आलोचना

(1) बहुलवाद का तार्किक निष्कर्ष अराजकता है : बहुलवाद के विरुद्ध आलोचना का सबसे प्रमुख आधार यह है कि बहुलवादी विचारधारा को स्वीकार करने का स्वाभाविक परिणाम अराजकता की स्थिति होगा। यदि प्रत्येक समुदाय को राज्य के समान मान लिया जाये और उन्हें सम्प्रभुता का आनुपातिक अधिकार भी समर्पित कर दिया जाये तो समाज में कानूनविहीन स्थिति उत्पन्न हो जायगी। बहुलवादी विचारक भी इस तथ्य से परिचित हैं। इसी कारण सम्प्रभुता का समुदायों में विभाजन करने के बाद भी बहुलवाद राज्य को समाज के विभिन्न समुदायों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने की शक्ति प्रदान करता है, किन्तु राज्य के द्वारा उस समय तक इस प्रकार का कार्य नहीं किया जा सकता जब तक कि उसे वैधानिक दृष्टि से सर्वोच्च स्थिति प्राप्त न हो।

(2) बहुलवाद कतिपय भ्रामक धारणाओं पर आधारित है : बहुलवाद कुछ मिथ्या धारणाओं पर आधारित है। यह समझना गलत है कि प्रत्येक समुदाय का कार्यक्षेत्र एक-दूसरे से सर्वथा पृथक् होता है और मानवीय कार्यों को ऐसे विभागों में विभक्त किया जा सकता है जिनका कि एक-दूसरे के साथ कोई सम्बन्ध न हो। समाज के वर्तमान संगठन में विभिन्न हितों और आस्थाओं का पारम्परिक संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में, यदि समाज में कोई अन्तिम वैधानिक सत्ता न हो तो विभिन्न समुदायों के पारस्परिक संघर्ष के कारण एक अस्वस्थ वातावरण उत्पन्न हो जायगा, जिसमें मानवीय प्रगति लगभग असम्भव ही हो जायेगी। अतः बहुलवादियों का यह समझना असत्य है कि प्रत्येक समुदाय बिना किसी संघर्ष के साधुवत रूप में अपने कर्तव्यों को निभाता रहेगा।

(3) सभी समुदाय समान स्तर के नहीं हैं : बहुलवादी विचारधारा के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण तर्क यह है कि इस विचारधारा में समाज के सभी समुदायों को समान स्तर का मान लिया गया है। प्रत्येक समुदाय को राज्य के समान मान लेना बहुलवादियों की एक भारी भूल है। वास्तव में, राज्य संस्था के अपने विशेष कार्यों के कारण उसकी स्थिति अन्य सभी समुदायों से भिन्न और विशेष होती है।

(4) बहुलवाद प्रभुत्व के काल्पनिक अद्वैतवादी शत्रु पर आक्रमण करता है : बहुलवाद की आलोचना का एक आधार यह भी है कि बहुलवाद जिस निरंकुश प्रभुसत्ता पर आक्रमण करता है, उसका प्रतिपादन हीगल को छोड़कर राज्य सत्ता के अन्य किसी भी समर्थक द्वारा नहीं किया गया है। बोदां, हॉब्स, रूसो, ऑस्टिन आदि सभी विचारक राज्य की सम्प्रभुता पर प्राकृतिक, नैतिक या व्यावहारिक कुछ-न-कुछ नियन्त्रण अवश्य ही स्वीकार करते हैं। उनके कथन का सारांश केवल यही है कि सम्प्रभुता अपने सदृश अन्य किसी शक्ति का अस्तित्व सहन नहीं कर सकती और यह एक अकाट्य सत्य है।

(5) बहुलवाद अन्तरविरोधों से भरा है : बहुलवाद के विरुद्ध एक गम्भीर बात यह है कि बहुलवादी विचारधारा अन्तर्विरोधों से भरी पड़ी है। बहुलवादी सैद्धान्तिक रूप से तो राज्य की शक्तियों को कम करके उसे अन्य समुदायों के साथ समता प्रदान करते हैं, किन्तु जब वे व्यवहार पर आते हैं तो यह स्वीकार करते हैं कि किसी एक संस्था को सम्प्रभु बनाये बिना राजनीतिक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस प्रकार वे परोक्ष रूप में राजकीय सम्प्रभुता को स्वीकार कर लेते हैं, यह बात सभी बहुलवादी विचारकों में देखी जा सकती है।

(6) बहुलवादी व्यवस्था में व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं होगा : बहुलवादियों की यह भ्रान्ति है कि अन्य समुदायों पर से राज्य का नियन्त्रण हटा लेने पर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु स्वतन्त्रता का वातावरण उपलब्ध होगा, वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। जो लोग समुदायों की स्वतन्त्रता के नाम पर राज्य के नियन्त्रण का विरोध करते हैं, वे अपने हाथ में सत्ता आने पर व्यक्ति के अधिकारों का हनन करने में राज्य से भी आगे बढ़ सकते हैं। मध्य युग में चर्च ने अपने से भिन्न मत रखने वाले व्यक्तियों का भीषण दमन किया था, और ब्रेनी तथा गैलीलियो को अपने ही देशवासियों के हाथों भीषण यातनाएँ सहन करनी पड़ी थीं।

7) राज्य संघों का संघ नहीं हो सकता : आलोचकों द्वारा लिण्डसे, बार्कर और अन्य बहुलवादियों के इस कथन की कटु आलोचना की गयी है कि राज्य समुदायों का एक समुदाय है। राज्य और अन्य समुदायों की स्थिति में आधारभूत अन्तर है। जबकि अन्य समुदायों का सम्बन्ध मनुष्य के किसी विशेष हित के साथ होता है, राज्य का सम्बन्ध उनके सर्वमान्य या व्यापक हितों के साथ होता है। इसी कारण राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई समुदाय मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतीक होने का दावा नहीं कर सकता।

8) बहुलवाद देशभक्ति विरोधी है : प्रभुसत्ता तथा राज्य के महत्व को कम करने तथा अपनी विचारधारा में अन्तर्राष्ट्रीय होने के कारण बहुलवाद नागरिकों की देशभक्ति की भावना का विरोध करता है, जिसे उचित और व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। राज्यसत्ता के विरुद्ध चाहे कुछ भी क्यों न कहा जाये और चाहे अन्तर्राष्ट्रीय विचारों का कितना ही महत्व माना जाये, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान समय के राज्यों में देशभक्ति का अपना स्थान और महत्व है।

 

बहुलवाद का महत्व

राजसत्ता के खण्डित स्वरूप तथा संघों के महत्व का एक अतिरंजित चित्र प्रस्तुत करने पर भी बहुलवादी दर्शन में सत्य का बहुत कुछ अंश है। गैटिल के शब्दों में, “बहुलवाद कठोर और सैद्धान्तिक विधानवादिता तथा ऑस्टिन के सम्प्रभुता के सिद्धान्त के विरुद्ध एक सामयिक और स्वागत योग्य प्रतिक्रिया है।”

बहुलवाद अराजनीतिक संघों के बढ़ते हुए महत्व पर जोर देता है, इन समुदायों के उचित कार्यक्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप के प्रति सचेत करता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि राज्य के द्वारा न केवल इन समुदायों को मान्यता प्रदान की जानी चाहिए वरन् इन समुदायों को अपने कार्यक्षेत्र में बहुत अधिक सीमा तक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिए। वर्तमान समय में मानव जीवन की बहिर्मुखी आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए बहुलवाद के इस विचार को प्रशंसनीय कहा जा सकता है। उचित रूप में बहुलवाद के इस विचार को स्वीकार कर लेने से न केवल व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायता मिलेगी वरन् राज्य की कार्यक्षमता में भी आवश्यक रूप से वृद्धि होगी।