राजनीति विज्ञान के उपागम

राजनीति विज्ञान के उपागम को मुख्यत: निम्न दो भागों में बांटा जाता है:

(A) आगमनात्मक उपागम (Inductive Approach)
(B) निगमनात्मक उपागम (Deductive Approach)

इन उपागमों के अतिरिक्त कुछ अन्य उपागमों का उल्लेख भी किया जाता है। ये हैं-(i) सादृश्य उपागम, (ii) वैधानिक उपागम, (iii) सांख्यिकीय उपागम, (iv) जीवशास्त्रीय उपागम (v) समाजशास्त्रीय उपागम, (vi) मनोवैज्ञानिक उपागम, (vii) आनुभविक वैज्ञानिक उपागम एवं (viii) व्यवहारवादी उपागम ।

 

(A) आगमनात्मक उपागम (Inductive Approach)

आगमनात्मक उपागम के अन्तर्गत आने वाले मुख्य उपागम निम्न हैं-

1) पर्यवेक्षणात्मक उपागम (Observational Approach): इस उपागम में शोधकर्ता राजनीतिक संस्थाधों एवं कार्यवाहियों का अध्ययन स्वयं के अनुभव, निरीक्षण एवं पर्यवेक्षण के आधार पर करता है। वार्ड़ ब्राइस ने अपनी पुस्तक अमेरिकी संघ ( American Commonwealth ) और “आधुनिक प्रजातन्त्र” (Modern Democracies) में इस उपागम का प्रयोग किया है। माण्टेस्क्यू ने ब्रिटिश शासन व्यवस्था के पर्यवेक्षण से शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त का निर्माण किया। आधुनिक समय में व्यवहारवादी लेखकों ने इसी उपागम का प्रयोग किया है। लार्ड ब्राइस का मत है कि राजनीतिक शोधकर्ता को अपना निरीक्षण किसी एक देश की राजनीतिक संस्थाओं तक सीमित नहीं रखना चाहिए बल्कि उसे अपने क्षेत्र को व्यापक बनाना चाहिए। उसका मत है कि मानव प्रकृति के मूल तत्व सभी स्थानों पर प्रायः समान होते हैं, केवल राजनीतिक परम्परायें, स्वभाव एवं विचार ही भिन्न-भिन्न होते हैं।

सीमायें एवं सावधानियाँ:

1. इसका प्रयोग सीमित रूप से किया जा सकता है। इसमें अत्यधिक धन की आवश्यकता होती है और सभी शोधकर्ताओं को यह सुविधा उपलब्ध नहीं होती।

2. इसमें सही तथ्यों को एकत्र करना कठिन है। यदि तथ्य एकत्रित हो भी जायें तो उनकी सच्चाई के सम्बन्ध में निश्चित होना कठिन है, क्योंकि जिन तथ्यों को शोधकर्ता एकत्रित करता है, हो सकता है उन पर उसके स्वयं के रुझानों का प्रभाव हो।

3. इसमें उच्च स्तर की वस्तुनिष्ठता एवं निष्पक्षता की आवश्यकता होती है, जिसका प्रायः प्रभाव होता है। उपर्युक्त सीमाओं के कारण ही लार्ड़ ब्राइस ने कहा है कि तथ्यों को निश्चित एवं स्पष्ट करने की आवश्यकता है, उनका अन्य तथ्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता है, तभी कोई सुन्दर कण्ठहार बन सकता है। इसमें इस बात की सबसे अधिक आवश्यकता है कि शोध या अध्ययन वास्तविक तथ्यों एवं घटनाओं पर आधारित हो, अनुमानों पर नहीं अध्ययन वास्तविक (निप्पक्ष) होना चाहिये और उस पर काल्पनिक या निजी मूल्यों का प्रभाव नहीं होना चाहिये। इसमें घटनाओं या क्रियाओं का पूर्ण अध्ययन होना चाहिए अपूर्ण या क्षणिक नहीं।

2) ऐतिहासिक उपागम (Historical Approach ): इस पद्धति का अत्यधिक महत्त्व है। इसके आधार पर राजनीतिक संस्थाओं के उदय, विकास और पतन का सही मूल्यांकन किया जा सकता है तथा भविष्य की संस्थाओं का निर्माण किया जा सकता है। उदाहरणतः भारत के वर्तमान संविधान का अध्ययन तभी पूर्ण माना जायेगा जब उसे 1909, 1919 और 1935 के अधिनियमों के संदर्भ में समझा जाये। यह उपागम निश्चित होने से राजनीति शास्त्र के लिए अत्यधिक लाभकारी है। गार्नर ने लिखा है कि “राजनीतिक संस्थाओं का सही ज्ञान उनके इतिहास द्वारा ही सम्भव है। उनका विकास कैसे हुआ और उन्होंने अपना ऐसा विकास कैसे किया है और वे अपने उद्देश्य की प्राप्ति में कहां तक सफल हुई है आदि बातों का अध्ययन आवश्यक है।” लास्की ने लिखा है कि सच्ची राजनीति इतिहास का दर्शन है।” माण्टेस्क्यू, सेविगने, सर हेनरी मैन, अरस्तू, गिलक्राइस्ट, सोले, फीमैन, लास्की, मैकियावली, हीगल, मार्क्स आदि लेखकों ने इस उपागम का इस्तेमाल किया है।

सीमायें व सावधानियाँ :

1. इसमें यह भय रहता है कि शोधकर्ता कहीं भावनात्मक प्रभावों का शिकार न हो जाये। अतः उसे धार्मिक विचारों, राजनीतिक पक्षपात, जातीय रुझानों एवं दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रभावों से बचने का प्रयास करना चाहिये।

2. शोधकर्ता का दृष्टिकोण निष्पक्ष एवं वैज्ञानिक होना चाहिए। उसे तर्क-वितर्क, व्याख्या एवं विश्लेषण करना चाहिए। सीले ने कहा है कि “हमें विचार करना चाहिए, तर्क करना चाहिए, सामान्य रूप देना चाहिए, परिभाषित करना चाहिए तथा भेद करना चाहिए, हमें तथ्यों का संग्रह करना चाहिये, उनकी प्रामाणिकता के सम्बन्ध में जाँच एवं परीक्षण करना चाहिये।”

3. शोधकर्ता को इस बात की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये कि इतिहास की पूर्ण पुनरावृत्ति नहीं होती। समय, परिस्थिति एवं विकास की स्थितियाँ ऐतिहासिक घटनाओं में भिन्नतायें पैदा करती हैं।

3) तुलनात्मक उपागम (Comparative Approach): यह उपागम पर्यवेक्षणात्मक एवं ऐतिहासिक उपागमों का पूरक है। इसमें शोधकर्ता वर्तमान एवं प्राचीन राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन कर एक सुनिश्चित विचार सामग्री को इकट्ठा करता है और चयन, तुलना एवं विलोपन की प्रक्रिया द्वारा प्रगतिशील शक्तियों एवं आदर्शों को मालूम करता है। राजनीति विज्ञान के लेखकों ने तुलनात्मक उपागम का प्रयोग प्रारम्भ से ही किया है। उदाहरणतः अरस्तू ने अपनी पुस्तक “पॉलिटिक्स” की रचना करते समय 158 संविधानों का अध्ययन किया था और तुलना के आधार पर आदर्श राज्य के गुणों तथा क्रान्तियों के कारणों का उल्लेख किया था। बोदां, माण्टेस्क्यू, लार्ड ब्राइस, हरमन फाइनर आदि लेखकों ने इस उपागम का इस्तेमाल किया है ।

सीमाएँ तथा सावधानियाँ – तुलनात्मक उपागम की अपनी सीमायें हैं। यदि इनका समाधान न किया जाये तो तुलना व्यर्थ एवं हानिकारक हो सकती है। इसकी प्रमुख सीमायें तथा उनके सम्बन्ध में अपनाई जाने वाली सावधानियाँ निम्न हैं –

1. इसकी सबसे बड़ी सीमा यह है कि शोधकर्ता राजनीतिक संस्थाओं की बाह्य समानताओं के भ्रम में फँस सकता है। अतः यह आवश्यक है कि तुलना करते समय वह राजनीतिक संस्थाओं की बाह्य समानताओं से प्रभावित न हो, उसे उस सामाजिक और आर्थिक वातावरण का अध्ययन करना चाहिये जिसमें वे विद्यमान हैं। उसे लोगों की आदतों एवं स्वभावों, आर्थिक और सामाजिक स्थिति, नैतिक एवं वैधानिक स्तर, राजनीतिक स्थिति आदि का अध्ययन करना चाहिये।

2. राजनीतिक संस्थाओं की तुलना वैज्ञानिक आधार पर होनी चाहिये। उनकी तुलना ऐतिहासिक दृष्टि से की जानी चाहिये। तुलना करते समय केवल समानताओं को ही नहीं, असमानताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। जैसा कि जेलिनेक ने कहा है कि “उन राज्यों एवं राजनीतिक संस्थाओं का समुचित रूप में अध्ययन किया जा सकता है, जो एक ही युग की हों, जिनका ऐतिहासिक आधार समान हो और जिनकी सामान्य ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक मान्यतायें एवं समस्यायें एक-सी हों।” उदाहरणतः पांचवीं शताब्दी की राजनीतिक संस्थाओं की तुलना बीसवीं शताब्दी की राजनीतिक संस्थाओं से नहीं की जा सकती। इसमें समय, सभ्यता और संस्कृति का महान अन्तर है।

4. प्रयोगात्मक उपागम (Experimental Approach): राजनीति विज्ञान एक समाज विज्ञान है। यह एक मानवीय विज्ञान है। इसकी अध्ययन सामग्री ( व्यक्ति ) के साथ उस प्रकार के प्रयोग नहीं किये जा सकते जिस प्रकार के प्रयोग भौतिक विज्ञानों की अध्ययन सामग्री के साथ किये जा सकते हैं। इसका कारण यह है कि व्यक्ति और समाज की प्रकृति ऐसी है कि उनके साथ कृत्रिम प्रयोग नहीं किये जा सकते। सर जार्ज सी. लेविस और लार्ड ब्राइस इस उपागम के विरुद्ध थे। लार्ड ब्राइस ने कहा है कि “रसायन शास्त्र की वस्तुओं को तोला एवं मापा जा सकता है, परन्तु मानवीय घटनाओं को न तोला जा सकता है और न ही मापा जा सकता है।” मानवीय घटनाओं का अधिक से अधिक वर्णन किया जा सकता है। हम ताप, शीत एवं वायु प्रभाव को माप सकते हैं, परन्तु यह कभी नहीं माप सकते कि किसी जनसमूह के मनोभाव कितने उग्र थे। हम उन्हें अधिक या कम उग्र या नम्र के विशेषण के द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं। हम निश्चित रूप में नहीं बता सकते कि उस उग्रता की मात्रा कितनी थी।

राजनीतिक क्रियाओं, घटनाओं या व्यवहारों पर मानव के विचारों, प्रेरणाओं एवं मनोभावों का कितना प्रभाव पड़ता है, उन्हें निश्चित रूप से निर्धारित करना कठिन है। राजनीति शास्त्र में वांछित परिणामों को प्राप्त करना एक जटिल समस्या है। उदाहरणतः यदि राजनीतिक वैज्ञानिक प्रजातन्त्र के साथ प्रयोग करना चाहता है तो वह अपनी इच्छानुसार न तो किसी राज्य का चयन कर सकता है और न ही ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है कि उसके प्रयोग सफल हो सकें।

 

(B) निगमनात्मक अथवा आदर्श उपागम (Deductive or Normative Approach)

इस उपागम के अन्तर्गत केवल एक ही अध्ययन उपागम का प्रयोग किया जाता है जिसे दार्शनिक उपागम कहते हैं।

दार्शनिक उपागम (Philosophical Approach): इस उपागम को अनुभव निरपेक्ष (A priori), निगमनात्मक (Deductive ) एवं परिकल्पनात्मक उपागम भी कहते हैं। इसमें राजनीतिक संस्थानों का अध्ययन नैतिक एवं दार्शनिक अवधारणाओं एवं परिकल्पनाओं के आधार पर किया जाता है। इसमें शोधकर्त्ता तर्क-वितर्क के आधार पर नियम निर्धारित नहीं करता बल्कि दार्शनिक आधार पर या वास्तविक अनुभवों के आधार पर किसी आदर्श को या कल्पना को निश्चित करता है और फिर वास्तविक राजनीतिक संस्थाओं को उस कसौटी पर कसने का प्रयास करता है। इस उपागम की सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि यह राजनीतिक संस्थानों के नैतिक एवं दार्शनिक उद्देश्यों को निर्धारित करती है तथा उनके मानवीय पहलू पर बल देती है। यह उन्हें झांकने और सुधारने के मानदण्ड प्रस्तुत करती है।

राजनीति विज्ञान के अनेक लेखकों ने इस उपागम का प्रयोग किया है। इस उपागम के प्रमुख समर्थक हैं-प्लेटो, टॉमस मूर, ब्लंशली, रूसो, काण्ट, बोसांके, मिल, सिजविक श्रादि। प्लेटो की रचना “रिपब्लिक” में आदर्श राज्य और दार्शनिक शासक का विचार उसकी कल्पनाओं का ही परिणाम है। टॉमस मूर ने अपनी रचना “यूटोपिया” में इसी उपागम का अनुसरण किया है। पुनर्जागरण के विद्वानों ने विवेक के युग का जन्म होने के कारण इस उपागम को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और पर्यवेक्षण एवं प्रयोगात्मक जैसे वैज्ञानिक उपागमों पर बल देना शुरू कर दिया।

सीमायें एवं सावधानियाँ – दार्शनिक उपागम की सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह वास्तविकताओं की उपेक्षा करता है और कल्पनाओं का सहारा लेता है। अध्ययनकर्त्ता कल्पनाओं की उड़ान में इतना ऊँचा उड़ जाता है कि उसे इस बात का ध्यान नहीं रहता है कि जिन सिद्धान्तों और संस्थाओं का वह समर्थन कर रहा है, वे व्यावहारिक हैं या नहीं ? डनिंग ने प्लेटो के आदर्श राज्य को ‘कल्पना से रोमांस’ की संज्ञा दी है।

उपर्युक्त सीमा के बाद भी दार्शनिक उपागम को नकारा नहीं जा सकता, इसका अपना महत्त्व है। व्यक्ति और समाज के अपने मूल्य होते हैं। राजनीतिक संस्थाओं का मूल उद्देश्य उन मूल्यों को सिद्ध करना होता है। यदि राजनीतिक संस्थायें उन मूल्यों की प्राप्ति में असफल रहती हैं तो वे नीरस और शुष्क बनकर रह जाती हैं। जैसा कि प्रो. जी. सी. फील्ड ने कहा है, “आदर्श, एक प्रभावशाली क्रिया की आवश्यक शर्त है।” आवश्यकता केवल इस बात की है कि दार्शनिक को “क्या होना चाहिए” और “क्या हो सकता है?” इन दोनों को मिलाने का प्रयास करना चाहिए।